आदमी होता खानाबदोश, गर घर नही होता।
फिरता आवारा सा, गर हमसफ़र नही होता।
कोई भी सफ़र तँन्हा तो मुकम्मल नही होता,
न हो साथ कोई ,वो सफ़र सफ़र नही होता।
नदी की तिश्नगी ही सागर को सागर बनाती है,
बिन नदी कोई समंदर, समंदर नही होता।
वो और होंगे, जो चाहत को गुनाह समझते है,
बगैर इश्क अपना, गुजर बसर नही होता।
कोशिश दर कोशिश कर, मिलेगी मंजिल तुझे,
होता है खुदा ,जिन का कोई रहबर नही होता।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”