दिशा भ्रम
अपनेआप और अपनों से प्रेम
चन्द्रप्राल जी को दिल का दौरा पड़ता है और वो गिर जाते हैं ! थोड़ी देर बाद वो अपने आपको एक ऐसे स्थान पर पाते हैं जहाँ सब कुछ मौन है । वो सबसे पूछते हैं कि आप सब मौन क्यों हैं ? कोई ज़वाब नहीं आता !
फिर धीरे से सवाल आता है कि यह तो तुम अपनेआप से पूछो ? “अपनेआप से “ बड़े आश्चर्य से चन्द्रपाल !
“हाँ क्या तुमने कभी अपनेआप से और अपनो से प्यार किया ?” फिर आवाज़ आई !
“हाँ बिल्कुल किया ! उन्हें वह सबकुछ दिया जिसकी उन्हें ज़रूरत थी। “ चन्द्रपाल जी बोले !
“ग़लत तुम झूठ बोल रहे हो , जीवन भर, अपनेआप को धोखा देते रहे और अपने लोगों को भी। तुम्हें इसकी सज़ा मिली है। अब यहाँ रहो हम सबके बीच ।” आवाज़ आती है।
“ तुम कौन हो? जो मुझ पर इतना बड़ा इल्ज़ाम लगा रहे हो ? मुझे घर जाना है। सब इंतज़ार देख रहे होंगे मेरा ।” चन्द्रपाल जी बेचैन हो जाते हैं !
तेज़ ठहाकों की आवाज़ से सब गूँज जाता है ! चारों ओर से आवाज़ें आती हैं “ इतना धूम्रपान , इतनी मदिरा और गुटके का सेवन करता रहा कुछ भी तो छोड़ा नहीं सब काम अपनेआप को मिटाने के लिये जीवन भर करता रहा फिर भी कहता है कि मैं अपनेआप से और अपनों से प्यार करता हूँ ! अब यहाँ अकेले रह घरवालों के बग़ैर !” हा -हा -हा !!
थोड़ी देर बाद सोचते हुए चन्द्रपाल “ काश मैंने अपने माँ – पिताजी और रीमा की बात मान ली होती तो मैं आज़ यहाँ ना होता !!
हमें यह समझना होगा कि हम सिर्फ़ अपने लिये नहीं बल्कि अपनों के लिये भी जीते हैं ।
मौलिक रचना
नूतन (दिल्ली)
आपका जीवन बहुत मूल्यवान है । अगर हम यह समझें कि यह सिर्फ़ अपने लिये नहीं है तो शायद इसे बेहतर तरीक़े से जी पायेंगें । बस ऐसा ही कुछ समझाने की कोशिश की है मैंने अपनी लघुकथा में ।
धन्यवाद
नूतन गर्ग