धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आध्यात्मिकता रहित भौतिक सुखों से युक्त जीवन अधूरा व हानिकारक है

ओ३म्

मनुष्य मननशील प्राणी है। मनुष्य अन्नादि से बना भौतिक शरीर मात्र नहीं है अपितु इसमें एक अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, शुभाशुभ कर्मों का कर्ता व भोक्ता जीवात्मा भी है जो इस शरीर का स्वामी है। आश्चर्य है कि अधिकांश शिक्षित व भौतिक विज्ञानी भी अपनी आत्मा के स्वरूप व इसके गुण-कर्म-स्वभावों से अपरिचित व अनभिज्ञ हैं। आत्मा विषयक सत्य ज्ञान वेद व इसके अनुगामी ऋषियों के उपनिषद् व दर्शन आदि ग्रन्थों में सुलभ है परन्तु हमारे भौतिकवादी विद्वान् उसे देखने का श्रम करना नहीं चाहते। इनकी मिथ्या धारणा है कि वेद एवं वैदिक ग्रन्थों में कोई बुद्धि संगत ज्ञान नहीं हो सकता। इनके पास अवकाश व जिज्ञासा ही नहीं होती कि यह एक बार इन ग्रन्थों की विषय वस्तु व सामग्री का अवलोकन तो कर लें। ऋषि दयानन्द से पूर्व इस प्रकार की सुविधा नहीं थी परन्तु अब तो यह सुलभ है। स्वामी दयानन्द जी ने ऐसे ही लोगों की सहायता के लिये विश्व का उच्च कोटि का धार्मिक, सामाजिक, राजधर्म की शिक्षा देने वाला ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” लिखा है। इसके अंग्रेजी, उर्दू व देश विदेश की अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं। सत्यार्थप्रकाश व इसके अनुवादों का जो विश्व स्तर पर पठित लोगों द्वारा जो सदुपयोग किया जाना चाहिये, अल्पज्ञता व अविद्यान्धकार में डूबे लोग इन्हें पढ़ना उचित नहीं समझते। इस कारण वह सत्यार्थप्रकाश में वर्णित जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक व सामाजिक विषयों के ज्ञान से वंचित हो गये हैं।

अध्यात्म का तात्पर्य ईश्वर व जीवात्मा सहित विभिन्न योनियों में जीवन व्यतीत करने वाले प्राणियों के विषय में जानना है। ईश्वर प्राप्ति के लिये साधना करना भी अध्यात्म में ही आता है। मुख्य ज्ञान तो हमें ईश्वर व आत्मा के विषय में ही प्राप्त करना होता है। इससे मनुष्य व अन्य प्राणियों के विषय में भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ईश्वर क्या व कैसा है, इसका सत्य, सारगर्भित व यथार्थ उत्तर मत-मतान्तरों के ग्रन्थ नहीं दे सकते। कुछ ऐसे भी मत हैं जो एक ही वस्तु को साकार व निराकार दोनों मानते हैं। ऐसा मानना बुद्धि का विकृत होना ही कहा जा सकता है। जिस वस्तु का आकार है उसे निराकार तो कदापि नहीं कहा जा सकता। वैज्ञानिकों ने परमाणु की संरचना पर विचार किया है और उसकी सिद्धि कर उसे विज्ञान के ग्रन्थों में सप्रमाण प्रस्तुत किया है। यह भी तथ्य है कि किसी वैज्ञानिक ने कभी हाईड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन आदि तत्वों के परमाणुओं को नहीं देखा है फिर भी सारी दुनियां के वैज्ञानिक व विज्ञान के अध्येता परमाणु के अस्तित्व को मानते हैं। परमाणु वा इसके इलेक्ट्रान, प्रोटान व न्यूट्रान से भी सूक्ष्म जीवात्मा है और उससे भी सूक्ष्म सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान परमात्मा है। परमात्मा का अध्ययन, वैज्ञानिकों की तरह उसको बुद्धि से जानना व देखना, उसको यथावत् जानकर उस ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना ही अध्यात्म की उच्च स्थिति होती है। आत्मा को भी वेदों व इतर शास्त्रों के अध्ययन सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के द्वारा जाना जा सकता है। ईश्वर व जीवात्मा का सम्यक् ज्ञान हो जाने पर मनुष्य स्वतः ही ईश्वर की उपासना व समाज कल्याण के कार्यों में जुड़ जाता है। हमारे सभी ऋषि-मुनि ऐसा ही करते रहे हैं और आधुनिक युग में ऋषि दयानन्द और उनके प्रमुख अनुयायी भी वही कार्य कर रहे हैं।

ईश्वर की उपासना से क्या लाभ होता है? इसका उत्तर है कि ईश्वर की उपासना कर्तव्य की पूर्ति के लिये की जाती है। ईश्वर के हमारे ऊपर अगणनीय उपकार हैं। हम जब किसी से लाभान्वित होते हैं तो उसका धन्यवाद करते हैं। अतः ईश्वर के सहस्रों व अगणनीय उपकारों के लिये उसका बारम्बार धन्यवाद करना तो हम सबका कर्तव्य बनता ही है। इसके लिये अपनी आत्मा, मन व सभी इन्द्रियों को भौतिक पदार्थों के चिन्तन से सर्वथा हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके उपकारों का ध्यान कर उसके प्रति समर्पित होना होता है जिससे आत्मा को बल, शक्ति व सत्प्रेरणायें प्राप्त होती है। ईश्वर के सान्निध्य में जाने से आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान दुःख आने पर भी घबराता नहीं है। ऋषि दयानन्द जी के मृत्यु के दृश्य को पढ़कर इसकी सिद्धि होती है। दूसरी ओर हम देखते हैं कि आध्यात्म से रहित लोग मृत्यु के समय दुःखी व रोदन करते हुए देखे जाते हैं। ईश्वर को मानने वाला आध्यात्मवादी मनुष्य दुःख आने पर उसे अपने पूर्व अशुभ व पाप कर्मों का फल मानता है और उन्हें सहर्ष भोगता है, वह विचलित नही होता और ईश्वर का धन्यवाद करता है। जब कर्म का भोग पूरा हो जाता है तो वह दुःख दूर हो जाते हैं। आध्यात्मिक मनुष्य के लिये जन्म व मृत्यु दिन व रात्रि के समान हैं। जैसे दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन आता है, उसी प्रकार से जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म वा पुनर्जन्म होना नियम है। कोई किसी मत-मतान्तर को माने, आत्मा के पुनर्जन्म को माने या न माने, कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म तो सबका होता है व होता रहेगा। यदि पुनर्जम्न नहीं होता तो फिर जो जन्म लेने वाले लोगों में आत्मा आती है, वह कहां से आ रही है? कौन इसे बनाता है और इसमें किस पदार्थ का प्रयोग होता है, इन प्रश्नों के उत्तर किसी मत-मतान्तर के पास नहीं हैं। यह कह देने से कि जीवात्मा अपने आप बनती है या ईश्वर बनाता है, इससे काम नहीं चलता। इसका उत्तर है कि अभाव से भाव और भाव से अभाव अस्तित्व में नहीं आता। आत्मा और ईश्वर सदा से हैं और सदा रहेंगे। आत्मा बनती व नष्ट नहीं होती अपितु अविनाशी आत्मा का पुनर्जन्म व पुनर्मृत्यु होती है। आत्मा का जन्म व मृतक आत्मा का पुनर्जन्म सत्य सिद्धान्त है और यह संसार के प्रत्येक मनुष्य पर लागू होता है। कोई भी मनुष्य इससे बच नहीं सकता।

जो मनुष्य भौतिक सुखों के चक्र में फंसे व बंधे हुए हैं, उनके पास ईश्वर व जीवात्मा को जानने व ईश्वर की उपासना करने के लिये समय ही नहीं है। भौतिक सुखों का भोग करने से वह ईश्वर की उपासना व यज्ञादि कर्मों के फलों से पृथक व दूर हो जाते हैं जिससे उनका भविष्य व पुनर्जन्म प्रभावित वा बाधित होता है। जिन मनुष्यों ने इस जीवन में शुभकर्म व ईश्वरोपासना आदि कर्म व साधन किये हैं, उन्हीं का पुनर्जन्म मनुष्य व देवों के रूप में होना सम्भव है। भौतिकवादी मनुष्यों ने जो शुभाशुभ कर्म किये होते हैं, उसी के अनुसार उनका भावी जन्म निश्चित होता है। अतः जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम कोटि का बनाने के लिये मनुष्यों को ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ईश्वरोपासना व यज्ञादि कर्मों सहित परोपकार आदि करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा वर्तमान जीवन हमारे सम्पूर्ण भूतकाल का परिणाम है और हमारा भविष्य हमारे वर्तमान के कर्मों का परिणाम होगा।

मनुष्य जीवन हर क्षण व हर पल घट रहा है। समय बीतने के बाद बीते हुए क्षण वापिस लौटाये नहीं जा सकते। अनुभव से यह सिद्ध है कि ईश्वर का ज्ञान व साधना जो युवावस्था में कर सकते हैं वह वृद्धावस्था में नहीं हो पाती। वृद्धावस्था में अधिकांश मनुष्य रोग, पारिवारिक समस्याओं व अन्यान्य चिन्ताओं से ग्रस्त हो जाते हैं। फिर यदि ज्ञान भी हो जाये तो पछताना ही पड़ता है। अतः युवावस्था में ही सच्चे ज्ञानी के सम्पर्क में जा कर तर्क-वितर्क कर सत्य व असत्य को जानना चाहिये। इसका सबसे अच्छा साधना सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन है। इसके अध्ययन व आर्यसमाज से सम्पर्क बढ़ाकर मनुष्य सत्य व प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। जीवन को वर्तमान व भविष्य के दुःखों से मुक्त करने के लिये हमें ध्यान करने योग्य ईश्वर के स्वरूप में स्वयं को स्थित कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। आध्यात्मिक जीवन से मनुष्य को ईश्वरीय आनन्द और भौतिक सुख दोनो ंप्राप्त होते हैं। उनका भविष्य भी सुरक्षित होता है। कोरे भौतिक सुखों के भोग व ईश्वर उपासना आदि कार्यों को न करने से हमारा भविष्य बिगड़ता है। मनुष्य मननशील प्राणी है। उसे अपने जीवन की उन्नति से जुड़े सभी प्रश्नों पर विचार करना चाहिये। इसी में उसका लाभ है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य