ग़ज़ल
चिरागों को लहू से जब भी दीवाने जलाते हैं
हवायें थरथरा उठती हैं तूफाँ काँप जाते हैं
न सजदे में झुके न बोझ से दोहरे हुए हैं हम
अदब की इस अदा को आप क्यों धोखा बताते हैं
वो नजरों से हमारी दूर बेशक हो गये लेकिन
अभी भी नींद में वो ख्वाब बनकर झिलमिलाते हैं
वो जी भर जिन्दगी से खेलने के बाद यूँ बोले
खिलौने खेलना छोड़ो खिलौने टूट जाते हैं
हमें फूलों के रंगों से नहीं मतलब है खुशबू से
चमन से ताजगी ही ‘शान्त’ अपने साथ लाते हैं
— देवकी नन्दन ‘शान्त’