आओ ना एक बार
आओ ना एक बार,
भींच लो मुझे
उठ रही एक
कसक अबूझ – सी
रोम – रोम प्रतीक्षारत
आकर मुक्त करो ना
अपनी नेह से।
आओ ना एक बार,
ढ़क लो मुझे, जैसे
ढ़कता है आसमां
अपनी ही धरा को
बना दो ना एक
नया क्षीतिज ।
आओ ना एक बार,
सांसो की लय से
मिला दो अपनी
सांसों की लय को
प्रीत हमारी नृत्य करे
धड़कनों की अनुतान पर
रोम रोम में समा लो
ना मुझे।
आओ ना एक बार,
सुनाई दे ध्वनि
शिराओं में प्रवाहित
रक्त की, स्वेद की बूंदें
भी हो जाएं अमृत
जकड़ो ना मेरी
देह को।
आओ ना एक बार,
बन जाते हैं पथिक
उस पथ का
जिसकी यात्रा अनंत हो,
कर दो ना निर्भय
विभेदन के भय से।
आओ ना एक बार,
करो ऐसा यज्ञ
जिसमें अनुष्ठान हो
मिलन की
आहुति हो प्रेम की
करो ना हवन
जिसमें मंत्र हों
समर्पण, समर्पण
और अंततः समर्पण।।
हां आओ ना एक बार…….
— कविता सिंह
भावयुक्त कविता. हार्दिक बधाई .
अदभुत, वाह