लघुकथा- उम्मीद
हाथ पर चढ़े प्लास्टर को देख कर पिता ने कहा, ” यह पांचवी बार है. तू इतना क्यों सहन करती है. चल मेरे साथ, अभी थाने में रिपोर्ट कर देते हैं. उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.”
” नहीं पापाजी !”
” तू डरती क्यों है बेटी ? हम है ना तेरे साथ .”
” वो बात नहीं है पापाजी ?”
” फिर ?” पिता ने बेटी की असहाय भाव से निहार कर पूछा, ” यह घरेलू हिंसा कब तक चलेगी?”
” जब तक वे अपनी आदत नहीं छोड़ देते हैं .”
” बेटी ! गलत आदत छुटती हैं क्या ? तू यूं ही कोशिश कर रही है.”
” आखिर बेटी आप की हूं ना पापाजी ?” उस ने पूरे आत्मविश्वास से कहा.
पिता कुछ समझ नहीं पाए. पूछा,” यह क्या कह रही हो ?”
” यही पापाजी. आप ने मेरी कलम खाने की आदत सुधारने के लिए तब तक प्रयास किया था जब तक मेरी यह गंदी आदत…” कहते हुए बेटी मुस्करा दी और न चाहते हुए भी पिता का हाथ गर्विली मुस्कान के साथ आशीर्वाद देने के लिए उठ गए.
— ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’