कविता

कविता- मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है

मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है
क्यों न हो
तुम आते भी तो हो हवा के झोंकों की तरह
बस महसूस करा जाते हो अपने होने का
दीये सी मद्धिम रौशनी में आलोकित तन को
अपने शीतल स्पर्श से बुझा जाते हो
मैं सागर में उठते-गिरते जलतरंगों की भाँति
हर्ष-विषाद के भँवर में विलीन हो जाती हूँ
साहिल पे तुम को देख के, हर बार लहर बनकर
तुम्हे स्पर्श करने की कोशिश करती हूँ
मगर अफसोस हर बार चंद फासलों से
तुम्हारे सुंदर गात को छूने से रह जाती हूँ
मगर इस बार ऐसा हरगिज न होगा
तोते की तरह तुझे पिंजरे में कैद कर लूँगी
पर तेरे मन मयूर को कैसे फांस पाऊँगी
वो तो चंचल, चपल है, मृग की तरह
मृगतृष्णा में भटकते रूह पर मेरा क्या वश
वो तो कस्तूरी के लिए दर-दर भटकेगा
तबतक जबतक कि उसे ज्ञात न हो कि
कस्तूरी तो उसके स्वयं की नाभिस्थल में है
वो तो मरुधरा की रेतीली भूमि में विचरेगा
तबतक जबतक की उसे ज्ञात न हो कि
चमकती हुई चीज जल नहीं रेत है
ये जानते हुए कि तुम फिर चले जाओगे
तुमको रोके रखने के तमाम जतन करूँगी
मेरे कोमल हृदय को चाहे जितने आघात दो
सब चुपचाप सहूँगी, मुख से कुछ न बोलूँगी
नयनों को सावन की तरह अश्को से भिगोऊंगी
जो भी कहना होगा मन की आँखों से कहूँगी
तुम इसे पढ़ पाओगे या नहीं, तुम जानों
मैं तो सिर्फ और सिर्फ इतना जानती हूँ कि
मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है

कन्हैया सिंह “कान्हा”

कन्हैया सिंह 'कान्हा'

नवादा, छपरा, बिहार ईमेल- [email protected]