“मुक्त काव्य”
“मुक्त काव्य”
सजाती रही
सँवारती रही
गुजारती रही जिंदगी
बाढ़ के सफ़र में
बिहान बहे पल-पल।।
गाती गुनगुनाती रही
सपने सजाती रही
चलाती नाव जिंदगी
ठहर छाँव बाढ़ में
गुजरान हुआ गल-गल।।
रोज-रोज भीग रही
जिंदगी को सींच रही
लहरों से खेल-खेल
बिखर गया घाट डूब
अश्रुधार छल-छल।।
तिनका-तिनका फेंक रही
डूबते को देख रही
मसरूफ थी जिंदगी
जल के प्रकोप में
खोया गान कल-कल।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी