मुद्दा ये नहीं है कि मसला हल हो जाए
मुद्दा ये नहीं है कि मसला हल हो जाए
उनकी ये जिद्द है कि अब जाँ ही निकल जाए
एक रोटी,एक बेटी की म्यार ढाह दी गई
उनका मकतब है कि ये माहौल बदल जाए
आँखों का नीलम,आग बन के लहूलुहान हो गया
तंगदिली की भूख कहती है कि सब निगल जाएँ
ये रिवायत,ये लज़ीज़ नफ़ासत कब तक बची रहेगी
जिस्म नोचती इस दौर में अब तो हर ग़ज़ल जाए
हम खुद की फेरहिस्त में कितने गलीच हो गए कि
हमारे इंसाँ होने के मायने पूछती हर नस्ल जाए
सलिल सरोज