वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ क्यों है?
ओ३म्
संसार में अनेक मत मतान्तर प्रचलित हैं। सभी अपने आप को मत, पन्थ आदि न कह कर ‘‘धर्म” कहते हैं। क्या यह सभी धर्म हैं? यदि ये सभी धर्म होते तो इनकी सभी मान्यतायें, सिद्धान्त व परम्परायें एक समान होती व सत्य होती। जल का जो धर्म है वह उसका तरल होना, मनुष्य की प्यास बुझाना, हाइड्रोजन तथा आक्सीजन के संयोग से बनना, गर्मी के सम्पर्क में आकर गरम होना व जमने पर ठण्डा होना आदि हैं। जल के यह धर्म संसार में सर्वत्र एक समान हैं तो फिर मनुष्यों के जो धर्म हैं वह भी एक विषय में तो एक समान होने ही चाहियें। अब यदि उनमें अन्तर व विरोधाभास है तो इसका अर्थ है कि सभी मत-पन्थों की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य नहीं हैं। यदि ऐसा है तो सभी मतों को अपनी-अपनी स्वयं ही समीक्षा करनी चाहिये और सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करना चाहिये। परन्तु देखा यह जा रहा है कि कोई मत अपनी असत्य व मनुष्यता के लिये हानिकारक बातों को छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं। ऐसे भी मत हैं जो येन केन प्रकारेण उचित व अनुचित तरीकों से अपनी जनसंख्या बढ़ा कर देश की सत्ता को अपने मत के अधीन लाना चाहते हैं। दूसरी ओर हमारे ही देश में हमारे पौराणिक मत को मानने वाले बन्धु अन्य मतों के सभी खतरों से अपरिचित दीखते हैं तथा अपनी प्राचीन धार्मिक व सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने के लिये कोई विशेष पुरुषार्थ करते हुए नहीं दीखते।
संसार के सभी मतों पर दृष्टि डालते हैं तो हम यह पाते हैं कि सिख धर्म का लगभग 319 वर्षों का इतिहास है। इसे श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने स्थापित किया था। इस्लाम पर विचार करें तो यह भी 1500 वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। ईसाई मत लगभग 2000 वर्ष पुराना है। इससे पहले यह सभी मत संसार में अस्तित्व नहीं रखते थे। तब इनके अनुयायियों के पूर्वज किस मत का पालन करते थे, यह कभी कोई विचार ही नहीं करता। ईसाई मत से भी प्राचीन बौद्ध, जैन तथा स्वामी शंकर का अद्वैत मत है। इनकी अवधि अधिकतम 2500 वर्ष ही निर्धारित होती है। इससे पूर्व पारसी मत था। इनकी धर्म पुस्तक का नाम ‘अवेस्ता’ है। यह मत बौद्ध, जैन आदि के समकालीन व इससे भी पुराना है। 5000 वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक पहुंचे तो ज्ञात होता है कि तब पूरे विश्व में वेद मत वा वैदिक धर्म से इतर कोई धर्म, मत, पन्थ व सम्प्रदाय आदि नहीं था। सभी मत महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए हैं। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक पूरे विश्व में केवल वैदिक मत ही था। वैदिक धर्म व मत कब व कैसे अस्तित्व में आया, इस पर भी विचार करते हैं।
वैदिक मत वेद से अस्तित्व में आया है। वेद चार हैं जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद हैं। यह चार वेद सृष्टि के आरम्भ में, अब से 1.96 अरब वर्ष पूर्व, अस्तित्व में आये। वेदों का ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। ईश्वर सर्वव्यापक है और इस कारण मनुष्य की जीवात्मा के भीतर भी विद्यमान है। वह आत्मा में प्रेरणा करके ज्ञान देता है। जिस मनुष्य का आत्मा व मन जितना अधिक स्वच्छ व पवित्र होता है, वह उतना ही अधिक ईश्वर के ज्ञान व प्रेरणा को ग्रहण कर सकता है। आदि चार ऋषियों की आत्मा, मन, बुद्धि, हृदय तथा ज्ञानेन्द्रियां सभी वर्तमान मनुष्यों की तुलना में अधिकतम पवित्र थे, इस लिये उन्हें ही ईश्वर ने वेदों का ज्ञान दिया था। ईश्वर इस संसार का रचयिता है। वह सर्वज्ञ व सर्वव्यापक है अतः उसे सृष्टि का ठीक-ठीक ज्ञान है। यदि उसके ज्ञान में किंचित भी न्यूनता होती तो वह मनुष्यों को वेदों का सर्वांगपूर्ण सत्य ज्ञान न दे पाता। ईश्वर के साक्षात्कार कर्त्ता एवं वेदों के रहस्य के भी साक्षात्कार कर्ता ऋषि दयानन्द ने वेद एवं संसार की प्रायः सभी पुस्तकों का अध्ययन कर घोषणा की है कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’ यह बात ऋषि दयानन्द के वेद भाष्य एवं इतर ग्रन्थों को पढ़ने पर सत्य सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ऐसे विद्वान व ऋषि हुए हैं जिन्होंने अपनी मान्यताओं की परीक्षा के लिये सभी मतों के आचार्यों के शंका समाधान व शास्त्रार्थ का स्वागत किया। उन्होंने अपने जीवन में प्रायः सभी मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ व शंका-समाधान सहित वैदिक धर्म के सिद्धान्तों पर वार्तालाप किये और सभी को सन्तुष्ट किया। सभी मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ में उनका पक्ष ही सत्य सिद्ध हुआ।
वेदों का ज्ञान प्राप्त होने पर ऋषियों ने वेदाध्ययन व वेद प्रचार की परम्परा को आरम्भ किया। सृष्टि के आरम्भ में प्रचलित यह परम्परा ही महाभारत काल तक तथा उसके बाद ऋषि दयानन्द तक व अब गुरुकुलों के माध्यम से चल रही हैं। वेद की सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिये हितकारी हैं। इससे किसी मनुष्य के प्रति पक्षपात व अन्याय नहीं होता। सभी शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक व सामाजिक क्षमता के अनुसार अपनी-अपनी उन्नति कर सकते हैं। वेदों में न अन्धविश्वास हैं न कुरीति व मिथ्या परम्परायें। वेदों का ज्ञान पूर्ण तर्क संगत, सत्य एवं प्राणीमात्र के लिये हितकारी है। वेदों के सत्य सिद्धान्तों पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं जिससे वेद सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो जाते हैं और वेदों से प्रचलित मनुष्य के सभी धर्म व कर्तव्य भी सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं।
वेदों के अध्ययन से ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित जीवात्मा और सृष्टि का अनादि कारण प्रकृति का ज्ञान भी उपलब्ध होता है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति ही संसार के मूल अनादि तत्व व पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा चेतन तत्व हैं तथा प्रकृति सूक्ष्म व जड़ पदार्थ है। विज्ञान जिस परमाणु को मानता है वह प्रकृति से बने हैं। प्रकृति परमाणुओं से भी पूर्व की अवस्था है। इन परमाणुओं की रचना ईश्वर ने ही की है। परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म तथा प्रकृति के भीतर भी व्यापक है। इस कारण वह परमाणु एवं सृष्टि की रचना कर सकता है व उसने की भी है। यह भी कह सकते हैं कि मूल प्रकृति से ही परमाणु व कार्य जगत बना है। संसार में तीन पदार्थों ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के अनादि अस्तित्व को त्रैतवाद का सिद्धान्त कहा जाता है। ईश्वर ने सृष्टि की रचना क्यों की? इसका उत्तर है कि ईश्वर ने अपने ज्ञान व सृष्टि रचना की सामर्थ्य को जीवों के कल्याण के लिये प्रकट किया है। यदि ईश्वर सृष्टि की रचना न करता तो कौन कहता कि ईश्वर सृष्टि रचयिता है व वह सृष्टि की रचना कर सकता है। ईश्वर ने सृष्टि की रचना इस लिये की है कि सृष्टि में विद्यमान, मनुष्य की दृष्टि में, अनन्त जीवों को उनके पूर्व जन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों का फल प्राप्त करा सके।
संसार के सर्वाधिक प्रचलित मतों को इस जन्म-मृत्यु व पुनर्जन्म के रहस्य व सिद्धान्त का ज्ञान नहीं है। वेद जीवात्मा के पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं। पुनर्जन्म का कारण जीवात्मा के शुभ व अशुभ कर्म तथा उनका सुख व दुःख रूपी फल व भोग होता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त ज्ञान, तर्क व अनेक आधारों पर सत्य सिद्ध होता है। संसार के अनेक मत अज्ञानतावश पुनर्जन्म के सत्य सिद्धान्तों को न जानते हैं और न मानते हैं। पं. लेखराम जी ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में पुनर्जन्म पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने पुनर्जन्म विषयक सभी प्रश्नों को सम्मिलित कर उनका तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। वैदिक धर्मियों के परिवारों में जब सन्तान जन्म लेती है तो उसका जातकर्म संस्कार होता है। इस संस्कार में ईश्वर के दिये वेदमन्त्र बोले जाते हैं। बच्चों को ओ३म् नाम सुनाया जाता है। उसे यह भी बताया जाता है कि तू वेद अर्थात् ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त है और तुझे वेद व सांसारिक ज्ञान प्रापत कर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, पुरुषार्थ, परोपकार तथा दान आदि करके एवं अपने मन को संयम में रखकर मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष का सिद्धान्त जैसा वेद व वैदिक साहित्य में है, किसी मत व मतान्तर में नहीं है। इस सिद्धान्त से अन्य मतों की अनभिज्ञता का कारण हमें उनकी अज्ञानता प्रतीत होता है। वैदिक धर्म में मनुष्य की मृत्यु होने पर उसका दाहकर्म व अन्त्येष्टि कर्म किया जाता है। अन्य मतों में प्रायः ऐसा नहीं होता। वहां मृतक शरीर को भूमि में गाड़ने का विधान है। इसका कारण उन्हें जीवात्मा और शरीर का ठीक-ठीक ज्ञान न होना है। आत्मा के शरीर से निकलने के बाद जड़ शरीर बचता है। यह शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना हुआ होता है। अतः इसे अग्नि में जलाकर पंच-तत्वों में विलीन करना होता है। शरीर में हमें जो सुख दुःख होता है वह हमारी आत्मा को होता है। आत्मा के निकल जाने पर शरीर को जलाने से उसे किंचित भी कष्ट या दुःख नहीं होता। अतः सभी को मृत्यु होने पर उसका दाह कर्म ही करना चाहिये जिससे भूमि प्रदुषित होने से बच सके अन्यथा आने वाले समय में कृषि के भूमि शेष नहीं रहेगी।
वैदिक धर्म में गर्भाधान से अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार करने का विधान है। इन संस्कारों को करने का कारण व उसकी विधि तथा उसमें जिन वेद मन्त्रों का विनियोग वा विधान है, वह अत्युत्तम व श्रेष्ठ है। अन्य मतों में इसका भी अभाव है। वैदिक धर्म की एक विशेषता यह भी है कि यहां नारी को पुरुष से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति में लिखा है कि जहां नारियों का सम्मान होता है उस घर व परिवार में देवता अर्थात् श्रेष्ठ मानव निवास करते हैं। अन्य मतों में नारी की ऐसी गौरवपूर्ण स्थिति नहीं है। वैदिक धर्म में सामाजिक व्यवस्था भी श्रेष्ठ है। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित है। देश व समाज में ज्ञान की पूर्ति करने वालों को ब्राह्मण, देश व समाज की रक्षा व न्याय करने वालों को क्षत्रिय, कृषि व वाणिज्य कार्य करने वालों को वैश्य और जो ज्ञान, शारीरिक बल में न्यून तथा उन्नत कृषि व व्यापार आदि नहीं कर सकते उन्हें अन्य तीन वर्णों की सेवा करने के कारण शूद्र व श्रमिक कहा जाता है। वैदिक काल में यह सब परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते थे। हमारे शरीर में ज्ञान का स्थान शिर है, बल व कर्म का स्थान हमारे बाहू हैं, कृषि व वाणिज्य कर्म का प्रतीक हमारा उदर है तथा सेवा के प्रतीक हमारे पैर हैं। शरीर में जिस प्रकार सभी अंग आपस में प्रेम व एक विचार होकर रहते हैं, इसी प्रकार समाज में भी सभी वर्णों को संगठित एवं प्रेम पूर्वक रहना चाहिये। मध्यकाल में इस व्यवस्था मे ंविकार आने से यह अपनी महत्ता खो बैठी। आज भी विश्व, देश व समाज में ज्ञानी को प्रथम स्थान, बलवान व बुद्धिमान को द्वितीय तथा कृषक व्यापारी को तृतीय स्थान प्राप्त है। यह भी वैदिक वर्णव्यवस्था का एक क्रियात्मक व उत्तम रूप ही है।
वैदिक धर्म में एक पत्नी व एक पति का सिद्धान्त है। इसी को आदर्श गृहस्थी माना जाता है और यह है भी। वैदिक धर्म में तलाक जैसी कुप्रथा भी नहीं है। यहां एक बार विवाह हो गया तो उनका सम्बन्ध मृत्यु होने पर ही छूटता है। अन्य मतों के सम्पर्क में आने पर इसमें भी कुछ बुराईयां आ गई हैं। वैदिक धर्म मनुष्य को सत्य पर आधारित सत्याचरण व शुभ कर्म करने की प्रेरणा देता है। वेदों में यज्ञ का भी विधान है जिससे वायु व जल प्रदुषण दूर होने के साथ मनुष्य आजीवन निरोग वा स्वस्थ रहता है। यज्ञ से दूसरे प्राणियों को भी लाभ होता है जिसका पुण्य यज्ञ करने वाले को होता है और इसका सुखद परिणाम ईश्वर से जीव को प्राप्त होता है। अन्य मतों में ऐसे विधान नहीं है। इन सब श्रेष्ठ विधानों व सिद्धान्तों के होने से वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होता है। हम आह्वान करते हैं कि बुद्धिमान लोगों को वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने जन्म व जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहिये। सच्चा वैदिक धर्मी इस जन्म में भी सुख पाता है और मरने के बाद भी उसकी उन्नति होकर उसे मोक्ष प्राप्त होता है। आईये, वेदों का अध्ययन करें तथा पृथिवी के श्रेष्ठ वैदिक धर्म को अपनायें। इसी में मनुष्यमात्र का कल्याण है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य