धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

यज्ञ मानव, समाज व देश हितकारी श्रेष्ठतम कर्म होने से सबके लिये करणीय है

ओ३म्

मनुष्य को स्वस्थ एवं सुखी जीवन व्यतीत करने के लिये शुद्ध वायु, जल, अन्न, ओषधि तथा पर्यावरण की आवश्यकता है। इस कार्य को पूरा करने के लिये सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर ने व उसके बाद वैदिक ऋषियों ने मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने का विधान किया है। यज्ञ एक अत्यन्त सरल कार्य है जिस पर साधन व समय अल्प लगता है तथा लाभ जीवन भर व मरने के बाद भी मिलता जाता है। यज्ञ करना शुभ व श्रेष्ठतम कर्म है और मनुष्य जीवन को सुखों से भरपूर करने का एक सरल व सफल साधन है। यज्ञ देवपूजा, संगतिकरण एवं दान को भी कहते हैं। अग्निहोत्र में भी यह तीन कार्य अल्प मात्रा में सम्पादित होते हैं। यज्ञ में स्वयं ईश्वर हमारे भीतर व बाहर उपस्थित रहते हैं और हमें इस कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। यज्ञ करने से याज्ञिक परिवार को सुख व शान्ति का अनुभव होता है। वायुमण्डल के सुगन्धित होने से मन में प्रसन्नता एवं उत्साह की अनुभूति एवं सन्तुष्टि का भाव बनता है। यज्ञ में जिन मन्त्रों का पाठ होता है उसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना भी सम्मिलित होती है। कुछ लोग बिना कोई शुभ काम किये ही ईश्वर से अनेक पदार्थों को मांगते हैं। हमारे मूर्तिपूजक भाई भी ऐसा करते हैं। यज्ञ की प्रार्थना इससे भिन्न ऐसी प्रार्थना है जिसमें की हम वायु को सुगन्धित एवं दुर्गन्ध मुक्त करने के साथ उसके माध्यम से आकाशस्थ वर्षा जल की शुद्धि करते हैं जिससे वर्षा होने पर हमारे अन्न, ओषिधियां तथा वनस्पतियों को लाभ होता है। सृष्टि के सहस्रों प्राणियों को यज्ञ से लाभ होता है। यही कारण हैं कि सृष्टि के आरम्भ से महर्षि दयानन्द तक जितने भी ऋषि, विद्वान व मनीषि हुए हैं सबने यज्ञ का गौरव गान किया है। हम भी यदि प्रतिदिन यज्ञ करते हैं तो निश्चय ही हमें वर्तमान जीवन सहित परजन्म में भी इससे लाभ होगा।

हम संसार में अनेक मत-मतान्तरों को देखते हैं। इन मत-मतान्तरों का ध्यान कभी इस बात पर नहीं गया कि उन्हें वायु व जल की शुद्धि करनी चाहिये। आज प्रदुषण अत्यधिक बढ़ जाने पर विज्ञानकर्मी एवं न्यायालय पर्यावरण की रक्षा की बात कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य अल्पज्ञ है और वह अनेक बातों का विचार नहीं कर सकता। यदि वैदिक धर्मियों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान न दिया होता तो हमारा अनुमान है कि हमारे देश के मनीषियों का ध्यान भी यज्ञ की ओर न जाता। वेदों मे ंईश्वर द्वारा यज्ञ करने का उल्लेख व आज्ञा होने के कारण ही वैदिक धर्मियों में यज्ञ की परम्परा का आरम्भ हुआ। ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक त्रैतवाद का सत्य सिद्धान्त भी वेदों की ही देन है। ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा हमें अपने स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव का सृष्टि के आरम्भ में परिचय कराया था। जीवात्मा का जो स्वरूप हमें उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में मिलता है वह भी वेदों के ज्ञान के अनुसार ही हमारे मनीषियों ने प्रस्तुत किया है। यज्ञ में आचमन व इन्द्रिय स्पर्श के मन्त्र बोल कर शरीर के निरोग व बलवान रहने की प्रार्थना की जाती है। इसके बाद स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मन्त्रों में भी हम ईश्वर के स्वरूप को जानकर उससे जीवन को उन्नत करने के लिये ईश्वर की स्तुति करते हैं और उससे सुखकारी श्रेष्ठ पदार्थों को मांगते हैं। इन आठ मन्त्रों में जो प्रार्थनायें की गई हैं, हमें नहीं लगता कि किसी अन्य मत-मतान्तर में ऐसी महनीय स्तुति व प्रार्थनायें हैं? इस दृष्टि से आर्यसमाज के वैदिक धर्मी लोग भाग्यशाली हैं जिन्हे ंप्रतिदिन प्रातः व सायं इन मन्त्रों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने का अवसर प्राप्त होता है। स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मन्त्रो ंके बाद स्वस्तिवाचन एवं शान्तिकरण के मन्त्रों से भी ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना की जाती हैं। यहां भी ईश्वर से अनेक उत्तम पदार्थों की याचना की जाती है। इसके बाद दैनिक व विशेष यज्ञ किया जाता है। सभी मन्त्रों का अपना महत्व है। विशेष यज्ञ करते हुए हम प्रथम समिधादान में व पांच घृताहुतियों में एक ही मन्त्र का उच्चारण करते हैं। इस मन्त्र को लिखकर हम इसका अर्थ दे रहे हैं। इस मन्त्र में ईश्वर से जो प्रार्थना की गई है, वह हमें अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। इसके बाद हम स्विष्टकृदाहुति मन्त्र के अर्थ को भी प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठकों से हम इनके भावों पर ध्यान देने का अनुरोध करते हैं।

पंच घृताहुति का मन्त्रः ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे-इदन्न मम।। इसका अर्थ हैः हे सब पदार्थों में विद्यमान परमेश्वर! मेरा आत्मा तुझ परमेश्वर के लिये इस यज्ञ में समिधा के समान है। इस यज्ञ के द्वारा तू मुझमें प्रकाशित हो, अवश्य बढे़ और हमको भी बढ़ाये। हमें पुत्र-पौत्र, सेवक आदि अच्छी प्रजा से, गौ आदि पशुओं से, वेद-विद्या के तेज से और धन-घान्य, घृत, दुग्ध, अन्न आदि से समृद्ध कर। यह सुन्दर आहुति सम्पूर्ण पदार्थों में विद्यमान ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिये है, यह मेरे लिये नहीं है। 

स्विष्टकृदाहुति मन्त्रः ओ३म यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।। इदमग्नये स्विष्टकृते-इदन्न मम।। इस मन्त्र का अर्थः इस यज्ञकर्म में मैंने जो कुछ विधि से अधिक किया है अथवा जो कुछ भी विधि से न्यून किया है, शुभ इच्छाओं को पूर्ण करने वाला परमात्मदेव सब शुभ इच्छाओं को जानता है, वह मेरी सभी शुभ इच्छाओं को पूर्ण कर देवे। शुभ इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले, यज्ञ को सफल बनाने, सब प्रायश्चित्तरूप दी गई आहुतियों एवं कामनपाओं को पूर्ण करनेवाले परमेश्वर के लिए यह आहुति है। वह परमात्मा हमारी सब कामनाओं को पूर्ण करे तथा श्रद्धा से किया गया मेरा यज्ञकर्म उनकी कृपा से सदा सफल हो। यह आहुति कामना पूर्ण करने वाले जगदीश्वर के लिए सादर समर्पित है। इसमें मेरा कुछ नहीं है।

यज्ञ के द्वारा एक ओर हम वायु, जल, मन, आत्मा आदि की शुद्धि करते हैं, अपने शरीर को स्वस्थ रखने की चेष्टा करते हैं वहीं मन्त्रों में जो श्रेष्ठतम विचार व प्रार्थनायें हैं, उसको बोलकर हम भीतर व बाहर विद्यमान सब ऐश्वर्यों के स्वामी परमेश्वर से इहलोक व पारलौकिक सुख की कामना करते हैं। यज्ञ को ऋषियो ने श्रेष्ठतम कर्म कहा है और वस्तुतः यह है भी। हम यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि यज्ञ में ईश्वर से जो प्रार्थनायें की जाती हैं वह पूर्ण होती है बशर्ते की हममें ईश्वर से उन्हें प्राप्त करने की पात्रता हो। यह भी ध्यातव्य है कि हमारे पास अपना शरीर आदि जो कुछ भी है वह सब हमारा नही है अपितु हमे ंपरमात्मा से निःशुल्क मिला है। यह भी निवेदन करना है कि यज्ञ करने से निर्धनता दूर होने सहित मनुष्य की सभी शुभ कामनायें पूर्ण होती हैं। अतः सबको यज्ञ करना चाहिये।

आजकल हम आर्यसमाजों व आर्य संस्थाओं में वार्षिकोत्सव आदि अनेक अवसरों पर बहुकुण्डीय यज्ञों का प्रचलन देखते हैं। हमसे हमारे एक ऋषिभक्त मित्र ने पूछा है कि क्या ऋषि ने बहुकुण्डीय यज्ञ का कहीं विधान व उल्लेख किया है? जहां तक हमारी जानकारी है ऋषि ने ऐसा नही किया है। उन्हें सम्भवतः इसकी आवश्यकता नहीं हुई। आर्यसमाज के उत्सवों में अधिक लोगों के आने पर सब यज्ञ में आहुतियां दे सकें और इसके बाद वह यज्ञ को अपने जीवन का स्थाई अंग बनायें, यही भावना बहुकुण्डीय यज्ञों के पीछे प्रतीत होती है। अनेक कुण्डों, तीन से पांच में यदि यज्ञ किया जाता है तो वह शोभायमान होता है। लोग भक्तिभाव से यजमान बनते हैं और श्रद्धापूर्वक यज्ञ में आहुतियां देते हैं। वैदिक काल में सभी लोग अपने घरों पर यज्ञ करते थे जिससे देश का वायु व जल शुद्ध होने से देशवासी रोगों से मुक्त रहते थे। ऋषि ने भी लिखा है कि यदि वर्तमान में सर्वत्र यज्ञ होने लगे तो देश पहले की तरह रोगों से मुक्त व सुख-स्मृद्धि आदि से युक्त हो जाये। बहुकुण्डीय यज्ञ करने में हमें कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता यदि आयोजक इसे धर्म प्रचार की भावना से करते हैं। इसके पीछे आयोजकों का किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं होना चाहिये। बहुकुण्डीय यज्ञ में यज्ञ में विहित गोघृत, वनस्पति, ओषधियों, मिष्ट, पोषक एवं सुगन्धित पदार्थों से जितनी अधिक आहुतियां दी जायेंगी उतना ही वातावरण पुष्ट व शुद्ध होगा। हमने इसी माह वैदिक साधन आश्रम तपोवन तथा आर्यसमाज लक्ष्मण चौक में बहुकुण्डीय यज्ञ देखे हैं। यहां अधिकतम् चार या पांच यज्ञ कुण्डों में यज्ञ किया गया। सब यज्ञ करने वाले यजमानों में पूर्ण श्रद्धाभाव देखा गया। यहां यजमान बनने का किसी से कोई शुल्क भी नहीं लिया जाता। अतः हमें इसमें किसी प्रकार का कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता। यज्ञ के नाम से यदि कोई कहीं दुकानदारी चलाता है तो वह नहीं होना चाहिये।

यज्ञ को देवयज्ञ कहा जाता है। इसमें चेतन एवं जड़ देवों की पूजा व सत्कार होता है। अग्नि में गोघृत व यज्ञ सामग्री की आहुति से वायु, जल, अन्न, ओषधियों की पवित्रता होती है। घर का वायुमण्डल सुगन्धित होकर मन व आत्मा को प्रसन्न व सन्तुष्ट करने के साथ परिवारजनों को रोगों से दूर रखता है। भोपाल जैसी गैस त्रासदी होने पर भी याज्ञिक परिवार की रक्षा देखी गई है। यज्ञ से यज्ञकर्ता रक्षित होते हैं। ईश्वर का सहाय व आशीर्वाद ंमिलता है। हमारा वर्तमान जन्म व परजन्म भी सुधरता है। यज्ञ एक शुभ व पुण्य कर्म होने से इसका सुख रूपी फल भी हमें अवश्य मिलता है। यज्ञ से प्राणीमात्र को सुख का लाभ होता है। इस कारण से यज्ञ श्रेष्ठतम् कर्म है और हम सबको इसका नित्य प्रति अवश्य सेवन करना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य