समय की तेज धारा में खो दिया,
वो सौगात वो दौलत याद आती हैं।
अकसर तन्हाँ तन्हाँ रातों में मुझको
माँ तेरी प्यारी सूरत याद आती हैं
घर देरी से अाने पर वो डाँटना तेरा
पापा की मार से फिर बचा लेना मुझे
अकसर बच्चों को डाँटता हूँ तब तब
तेरी वो सारी नसीहत याद आती हैं।
हम भी कितने अमीर थे उन दिनों
अपने जहाज थे चाहे कागज के सही
पापा से छिपा कर दिये थे चार पैसे
मिट्टी की गुल्लक वो दौलत याद आती हैं।
सर्दी की उन कहर भरी रातों में
अपनी रजाई भी मुझको उडाना
तेरे आँचल में कितने महफूज थे
माँ अब तेरी अहमियत याद आती हैं।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर “