मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अमरता प्रदान करने वाले विश्व वन्दनीय ऋषि वाल्मीकि
ओ३म्
आज महर्षि वाल्मीकि जी का जन्म दिवस है। हम यह भूल चुके हैं कि हमारी धर्म व संस्कृति के गौरव मर्यादा पुरुषोत्तम राम को हम जितना जानते हैं उसका आधार वैदिक ऋषि वाल्मीकि जी का महाकाव्य ‘‘रामायण” है। भारत व अन्यत्र श्री राम के विषय में जो भी ग्रन्थ रचे गये वह सब महर्षि वाल्मीकि रामायण के आधार पर ही लिखे गये। यदि रामायण ग्रन्थ न होता तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर अन्य कोई साहित्य भी न होता। अतः हम महर्षि वाल्मीकि जी के ऋण को जानकर उन्हें सश्रद्ध नमन करते हैं।
महाकाव्य रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समकालीन थे। रामचन्द्र जी अयोध्या में रहते थे तथा महर्षि वाल्मीकि अयोध्या के निकटवर्ती किसी वन में आश्रम में रहते थे। रामायण की कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि उनके आश्रम में आये। नारद से महर्षि ने पूछा कि क्या धरती पर कोई ऐसा मानव है जिसमें वेद वर्णित सभी गुण-कर्म-स्वभाव विद्यमान होने के साथ वह मर्यादाओं का रक्षक व पालक है तथा जिसे हम आदर्श महापुरुष कह सकते हों। नारद जी ने इसका उत्तर देते हुए उन्हें श्री राम चन्द्र जी को इसका पात्र बताया था। उन्होंने वाल्मीकि जी को राम का विस्तार से चरित्र वर्णित किया। प्रश्नोत्तर हुए होंगे और इसके बाद महर्षि वाल्मीकि जी ने रामचन्द्र जी की जीवन गाथा लिखने का निश्चय किया जिसका परिणाम उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना ‘‘वाल्मीकि रामायण” है। यह रचना संस्कृत में की गई और इसे गद्य में न लिखकर काव्य में लिखा गया है। गद्य लिखना सरल होता है और पद्य में रचना करना बड़े बड़े विद्वानों के वश में भी नहीं होता। इस दृष्टि से भी वाल्मीकि जी का महत्व है।
महर्षि वाल्मीकि जी कब व किस काल में हुए, यह हम सभी जानना चाहेंगे। देश के लोगों को इसका ज्ञान नहीं है। कुछ लोग तो रामायण को काल्पनिक कह कर अपनी मूर्खता व अज्ञानता को प्रकट करते हैं। रामायण एक सत्य व ऐतिहासिक ग्रन्थ है। वैदिक साहित्य के सूर्य महर्षि दयानन्द ने वाल्मीकि रामायण को सत्य घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक ग्रन्थ बताया है। उन्होंने बच्चों को इसका अध्ययन कराने हेतु इसे गुरुकुलीय पाठ विधि में सम्मिलित भी किया है। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि जो बात बुद्धिसंगत न हो, सृष्टिक्रम के विरुद्ध हो, वह बात सत्य न होकर प्रक्षिप्त होती है। इसके दो कारण होते हैं जिनमें से एक तो प्रतिलिपिकार की अज्ञानता और दूसरा स्वार्थ। इन्हीं दो कारणों से महाभारत के बाद मध्यकाल में प्राचीन वैदिक साहित्य के साथ छेड़छाड़ की गई। मनुस्मृति, महाभारत, सहित रामायण आदि अनेक ग्रन्थ इसका शिकार हुए। आर्य विद्वानों ने प्रक्षेपों को निकाल कर शुद्ध सामग्री देशवासियों को प्रस्तुत करने का दायित्व लिया जिसका फल हमें स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती कृत वाल्मीकि रामायण तथा सत्य-प्रकाशन, मथुरा से प्रकाशित ‘शुद्ध रामायण’ के रुप में प्राप्त हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों को पढ़कर रामचन्द्र जी के सत्य स्वरूप को जाना जा सकता है। सभी देशवासियों को इन दोनों ग्रन्थों को अवश्य पढ़ना चाहिये।
महर्षि वाल्मीकि जी श्री रामचन्द्र जी के समकालीन थे। रामचन्द्र जी त्रेता युग में हुए थे। त्रेता सतयुग के बाद और द्वापर से पहले आता है। वर्तमान में कलियुग चल रहा है और इसके 5243 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इससे पूर्व द्वापर के 8,64,000 वर्ष बीते थे। द्वापर से पूर्व त्रेता युग था। इससे हम अनुमान करते हैं कि महर्षि वाल्मीकि और श्री रामचन्द्र जी का काल 8.70 लाख वर्षों से अधिक का है। इतने अधिक वर्षों से रामायण ग्रन्थ का अनेक विद्वानों व गुरुकुलों के ब्रह्मचारियों ने संरक्षण किया, वह सब भी हमारे नमन व श्रद्धा के पात्र हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि महर्षि वाल्मीकि व अन्य ऋषि किसी वर्ग विशेष के महापुरुष न होकर समस्त आर्य जाति के महापुरुष हैं। वह वेदों के विद्वान व मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। ऋषि उसे कहते हैं जिसने किसी एक व अधिक वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार करने के साथ उसका प्रचार भी किया हो। महर्षि वाल्मीकि जी रामचन्द्र के काल त्रेतायुग में किसी वन में अपने आश्रम में रहते थे जहां ब्रह्मचारी उनसे विद्याभ्यास करते थे। गोपालन व कृषि वहां होती थी। अनेक प्रकार के फलों के वृक्ष वहां लगे थे। वह ब्रह्मचारियों को वेद व व्याकरण आदि अनेक विद्याओं के ग्रन्थों का अध्ययन भी कराते थे। सभी परस्पर मिलकर प्रतिदिन प्रातः व सन्ध्याकाल में सन्ध्या एवं अग्निहोत्र करते थे। इन सब कामों को करने से वह सच्चे ब्राह्मण सिद्ध होते हैं। उनसे जो ब्रह्मचारी बढ़े होंगे वह अधिकांश ब्राह्मण व क्षत्रिय आदि वर्णों के बने होंगे। वेद व महर्षि वाल्मीकि जी की शिक्षाओं को जो भी अपनायेगा वह गुण-कर्म-स्वभाव से ब्राह्मण व क्षत्रिय आदि बनेगा, यह बात हम ऋषि दयानन्द जी की विचारधारा, मान्यताओं व वैदिक सिद्धान्तों के आधार पर कह रहे हैं। वैदिक सिद्धान्त ही विश्व में शान्ति उत्पन्न कर सकते हैं। विश्व में जो अशान्ति है वह मत-मतान्तरों सहित लोगों के अज्ञान व स्वार्थ आदि के कारण ही होती है। जब मनुष्य वैदिक सिद्धान्तों को धारण कर लेते हैं तो उनके भीतर से अविद्या दूर हो जाती है। अविद्या दूर होने पर मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, महत्वाकांक्षा, स्वार्थ आदि बुराईयों से मुक्त हो जाता है। इसी से निजी जीवन, परिवार, समाज, देश व विश्व की उन्नति हो सकती है।
महर्षि वाल्मीकि जी संस्कृत के आद्य कवि भी थे। आद्य कवि इसलिये कहे जाते हैं कि उनसे पहले जो कवि हुए उनका कोई साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। वाल्मीकि रामायण वस्तुतः महाकाव्य होने के साथ एक आदर्श मर्यादाओं के पालक महापुरुष का जीवन चरित्र है। इसमें वैदिक आदर्शों के मूर्तिमान पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी के जीवन व कार्यों का बहुत ही प्रभावशाली वर्णन हुआ है। विश्व के इतिहास में किसी महापुरुष के जीवन पर ऐसा महाकाव्य नहीं लिखा गया। यदि कोई किसी संस्कृतेतर भाषा में लिखा भी गया तो अर्वाचीन होने के कारण उसका वह महत्व नहीं हो सकता। वाल्मीकि रामायण के एक श्लोक का बहुत प्रयोग किया जाता है। वह है ‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्य स्वर्गादपि गरीयसी।’ कहा जाता है कि लक्ष्मण लंका का वैभव देखकर कुछ देर के लिये मुग्ध हो गये थे। उन्हें लंका अयोध्या से अच्छी लग रही थी। इस पर लक्ष्मण को समझाते हुए श्री रामचन्द्र जी ने उन्हें कहा था कि लक्ष्मण ‘यद्यपि लंका स्वर्णमयी है परन्तु यह मुझे अच्छी नहीं लगती। इसलिये कि माता व मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी बढ़कर है।’ यह आदर्श वाक्य हैं जो राम ने लक्ष्मण जी को कहे थे और जो हमें महर्षि वाल्मीकि जी के द्वारा प्राप्त हुए थे। इससे मिलता जुलता मनुस्मृति का भी एक वाक्य है जिसमें कहा गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात् जहां नारी, माता, भगिनी, पत्नी आदि की पूजा व सत्कार होता है, जिस देश व समाज में नारी प्रसन्न रहती है, वैदिक सदाचार का पालन करती है वहां देवता रमण करते हैं अर्थात् वहां सुख व शान्ति स्थापित होती हैं। हम आद्य कवि महर्षि वाल्मीकि जी को रामायण प्रदान करने के लिये नमन करते हैं।
आज वाल्मीकि जयन्ती का पर्व है। हम समस्त देशवासियों सहित वाल्मीकि जी के अनुयायियों को भी अपनी शुभकामनायें देते हैं। वाल्मीकि जयन्ती किसी वर्ग विशेष का पर्व नहीं अपितु समस्त आर्य हिन्दू जाति का पर्व है। आर्यसमाज को इस पर्व को हर्षोल्लासपूर्वक मनाना चाहिये। हम गुरुकुल महाविद्यालय के स्नातक, वेद प्रचारक, प्रवर आर्य विद्वान पंडित रुद्र दत्त शास्त्री, देहरादून के सत्संगी रहे हैं। हमने उनके श्रीमुख से अनेक बार वाल्मीकि रामायण की कथा स्थानीय आर्यसमाज में सुनी है। उन्हें अपने संस्थान भारतीय परितेलन संस्थान में बुलाकर उनका प्रवचन भी कराया था। वह वाल्मीकि रामायण की बहुत प्रभावशाली कथा करते थे। उसके बाद हमें उन जैसा विद्वान रामायण कथाकर दृष्टिगोचर नहीं हुआ। हमने उनकी मृत्यु पर एक संक्षिप्त लेख भी मिला था। उन्होंने वाल्मीकि रामायण पर एक ग्रन्थ की रचना भी की थी जो उनसे खो गया था। हमें महर्षि वाल्मीकि जी के सत्य चरित्र, स्वरूप व गुणों को जानकर उनकी अच्छाईयों को अपने जीवन में धारण करना चाहिये। यदि हममें से कोई मांसाहार व नशाखोरी करता है, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता है तो उसका उन्हें आज ही त्याग कर देना चाहिये। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती और महात्मा प्रेम भिक्षु जी रचित वाल्मीकि रामायण वा शुद्ध रामायण का प्रति माह व प्रति छः माह में एक बार अध्ययन कर लेना चाहिये जिससे हमें अपने कर्तव्यों का बोध हो सकेगा। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य