कविता

एक दीपक जल रहा था

एक दीपक जल रहा था,
साधना के कठिन पथ पर।
 वह निराश्रित जल रहा था ,
वह उपेक्षित था सभी से,
किन्तु मार्ग दिखा रहा था।
अन्य का भी कष्ट जानो,
यही नीति सिखा रहा था।
किन्तु प्राणी  तो स्वयं ही ,
वासना में गल रहा था।
एक भंवरा आ कहीं से,
 दीप से यह गुन गुनाया।
नहीं मानव सुन सकेगा
स्वार्थ ने अंधा बनाया।
मैं स्वयं ही आ गया हूँ,
 क्योंकि इनमें पल रहा था।
चल पडी तब पवन सर सर,
गिरा भंवरा जल गया जब ,
 दीप का भी पुंज क्रमशः ।
स्वतः पल में ढल गया तब,
क्योंकि मिश्रित शक्ति से ही
दिव्य सूर्य निकल रहा था।
—  शशी तिवारी

शशी तिवारी

अध्यापिका लखनऊ