खुद को जलाता चला गया
उसके होंठों को यूँ छूता चला गया
बहुत प्यासा था,मैं पीता चला गया
उनकी निगाहों में कोई तो समंदर है
उभरना चाहा तो खुद को डुबोता चला गया
जिस्म हो कि खुशबू से भरे कई प्याले
सर से पाँव तलक़ उसमें भिंगोता चला गया
जुल्फें खुलके गिरी मुझपे कुछ इस कदर कि
मैं उनके तस्सवुर में समाता चला गया
कमर थी कि नदी की बलखाती राहें कोई
मैं सफर में तो रहा,पर मंज़िल भुलाता चला गया
सीने में दफ़्न थी सदियों से कोई मीठी आग जैसे
जो जला एक बार तो फिर खुद को जलाता चला गया
सलिल सरोज