राजनीति

लेख– युवाओं के मुद्दे हो चुनावी चौपाल का हिस्सा

कहाँ तो तय था चरागां हर घर के लिए, यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए। यह उक्ति आज के दौर में एकदम सटीक बैठती है, क्योंकि बेरोजगारी का आलम जो देश-समाज में बद्दस्तूर बढ़ता जा रहा। 2014 के आम चुनाव में जब देश के केंद्रीय सत्ता में नई सरकार काबिज़ हुई थी। तो लगा था। देश में बेरोजगारी का आलम कम होगा, लेकिन अब काम मिलना तो दूर। जिस स्टार्टअप और मेक-इन इंडिया का ज़ोरदार प्रचार किया गया। वह भी बेरोजगारी कम करने में मददगार साबित नहीं हो पा रही। तो ऐसे में क्या जिन हिंदी भाषी राज्यों में आगामी दिनों में विधानसभा चुनाव होने वाला है, वह रोजगार और युवाओं के भविष्य की बात प्रमुखता से करेंगे। यह बड़ा सवाल सबके ज़ेहन में कौंधने लगा है। एक वाक़ये का ज़िक्र करना बेहद ज़रूरी है। देश में रेलवे के 20 हज़ार पद के लिए भर्ती निकलती है। तो उसके लिए 2 करोड़ 37 लाख लोग कतारबद्ध हो जाते हैं। अब इसके बाद शायद किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं, कि युवाओं का हाल उसी देश में कैसा है। जिस पर इतराती तो यहां की राजनीति भी है।

एक आंकड़े के हवाले अगर बात करें, तो देश में मात्र 43 फ़ीसदी लोग रोजगार ढूढ़ने निकलते हैं। जिसमें से सात फीसदी को ही रोजगार मुहैया हो पाता है। जो बेहद दयनीय स्थिति को बयां करता है। स्टेट ऑफ वर्क इन इंडिया-2018 की रिपोर्ट कहती है, कि देश में 16 फ़ीसद नौजवान बेरोजगारी से पीड़ित हैं। बाक़ी जो कमाते भी हैं। वे बहुत कम कमाते हैं। इसके अलावा श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट ख़ुद सरकारी पोल-पट्टी खोलती है, कि पिछले पांच वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है। हर रोज़ 550 नौकरियां कम हो रही, साथ में स्वरोजगार के अवसर भी कम हो रहें। एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से ज़िक्र करें तो 2019 आते-आते लगभग 39.8 करोड़ लोगों के पास उनकी योग्यता के अनुसार कार्य नहीं होगा। यह आज ऐसी हकीकत है, जिसे कोई देखना नहीं चाहता। राजनीति के चतुर-चाणक्य सिर्फ़ अपनी विजय के लिए जाति-धर्म और सियासी गठजोड़ में लगें हैं। फ़िर वह बात चाहें आगामी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत राज्यों के विधानसभा चुनाव हो, या 2019 का आगामी आम चुनाव। ऐसे में यक्ष प्रश्न यहीं अगर जैसे सियासतदां अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए आगामी नीति और उसके क्रियान्वयन में जुट जाते हैं। शायद ऐसी चुस्ती-फुर्ती जनमहत्व के विषयों पर दिखे। तो देश की दशा में व्यापक स्तर पर बदलाव दिख सकता है। 21वीं सदी में हमारे देश-समाज का युवा नौकरियां न मिलने से किस हद तक निराश-हताश और परेशान है। इसकी बानगी यह आंकड़ा ही पेश करता है, कि देश में 1 लाख 54 हज़ार से अधिक युवा अबतक आत्महत्या कर चुके हैं।

अब ज़िक्र देश के दिल मध्यप्रदेश से करते हैं। जहां आगामी समय में चुनाव होने को हैं। इस सूबे में युवाओं की लंबी तादाद है। सरकारी आंकड़े कहते हैं, मध्यप्रदेश में लगभग 1 करोड़ 41 लाख युवाओं की तादाद है। तो ऐसे में अगर देश के दिल मध्यप्रदेश के युवाओं को अपने लिए रोजगार की गुहार के करने बाबत सूबे में बेरोजगार दल का गठन तक करना पड़ रहा है। फिर हमें शायद यह बताने की सूझेगी नहीं, कि आख़िर बेरोजगारी घर किस स्तर तक आज की व्यवस्था में कर गई है। यह आपको भी पता चल गया होगा। फिर भी एक बार अनुमानित आंकड़े पेश कर ही दिए जाएं। शायद उससे कुछ फ़र्क सियासतदानों पर पड़ जाएं। 

 तो बीते दो वर्षों में बेरोजगारी की संख्या मध्यप्रदेश सूबे में ही 53 फ़ीसद तक बढ़ गई है। सरकारी रपट के मुताबिक जहां देश के ह्रदय मध्यप्रदेश में दिसंबर 2015 तक पंजीकृत बेरोजगार लगभग 15 लाख के क़रीब थे। वह संख्या 2017 के आखिर में आते-आते विकास के दावों और सरकारी नीतियों से आंख मिचौली करते हुए लगभग 24 लाख के करीब पहुँच जाती है। इसके अलावा स्थिति दयनीय तो तब मालूम पड़ती है, जब आंकड़ों की निगहबानी करने पर पता चलता है, कि सूबे के 48 रोजगार कार्यालयों ने मिलकर 2015 में कुल 334 लोगों को ही रोजगार उपलब्ध कराया। फिर देश के कोने कोने तक फैले सरकारी रोजगार के कार्यालय सिर्फ़ राजस्व को चपत लगा रहे। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं लगता। ये बात हुई देश के दिल की। तो यहां एक उक्ति याद आती है, ना क़मीज़ हो तो घुटनों से पेट ढक लेंगे। कितने मुनासिब है ये लोग इस सफ़र के लिए।

ऐसे में अगर बेरोजगारी अपने चरम पर पहुँच रहीं। फ़िर रहनुमाई तंत्र प्रदेश का हो, या केंद्र का उसकी भूमिका पर संदेह खड़ा हो जाता है। सरकारें आख़िर कर क्या रहीं हैं। पढ़े-लिखें युवाओं को नौकरियां मिलेंगी नहीं तो वे जाएं कहाँ? सबसे बड़ी बात आख़िर विकास का कैसा मॉडल तैयार किया जा रहा, जिसमें युवाओं आदि की कोई पूछ नहीं? तो अब आगामी चुनाव का केंद्र बिंदु युवा और रोजगार होना चाहिए। ग्रामीण स्तर पर कुछ कल-कारखाने ऐसे स्थापित करने चाहिए। जो स्थानीय बेरोजगारों के लिए रोजगार का साधन उपलब्ध करा सके। साथ में जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए समाज को भी सहयोग करना चाहिए। इसके अलावा देश में आर्थिक विकास की और ढांचागत योजनायें लागू की जाएं । तो बेरोजगारी जैसी मानव निर्मित समस्या हल हो सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896