गजल
तुमने अपने ही पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी है
इतना और करो पीड़ा का ब्याह रचा दो क्वाँरी है
कभी लकीरें मिट जाती हैं कभी बड़ी हो जाती हैं
किस्मत बनती और बिगड़ती रेखाओं से हारी है
जाने कितने युग बीते जन्मे हम फिर-फिर बार मगर
आज भी जीवन की साँसों से वही लड़ाई जारी है
सोये जागे चले गिर पड़े फिर सँभले फिर बैठ गये
मायूसी बेबसी बनी बोझल आँखों पर तारी है
बीच सफर में रुकने वाले मंजिल कभी नहीं पाते
कदम कदम पर देखा हमने गह-गह दुनिया भारी है
इस महफिल में जिसे देखिए दिलकश गजलें कहता है
हटकर नई गजल कहने की ‘शान्त’ तुम्हारी बारी है
— देवकी नन्दन ‘शान्त’