डायरी
आज डायरी पलटते हुये
कुछ यूँ मिले सुर्ख गुलाब के फूल
जैसे मुझसे कुछ कह रहें हों
भूला दी सभी यादें
मगर इसे कैसे भूला पाओगी
याद आज भी कही न कही
जिंदा है किसी रुप में
ये वही गुलाब है
जो तुमने अक्सर मुझे दिया करते थे
और मै घर आकर
किसी काँपी,किताब ,डायरी में
छूपा कर रख देती थी
ताकि वक्त बेवक्त ये गुलाब
तुम्हारी याद दिलाते रहे
इसकी खुशबू तुम्हारे पास होने का
अहसास कराते रहे
हर एक पन्ना महकता रहता
लेकिन जैसे ही तुम दूर हुये
इसकी खुशबू भी कम होते गये
और मैं अपने जेहन से
यादों को दूर करने की कोशिश की
लेकिन ये सुर्ख गुलाब के फूल
वक्त बेवक्त सामने आकर
तुम्हारी याद दिला ही देते।
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’