बचपन की दीवाली
मेरे बचपन की दीवाली ,
जाने कहाँ खो गई ,
तुम जब आती थी ,
बहुत दिनों की छुट्टियां होती थी,
दशहरा से ही हम ,
चलाते खूब पटाखे थे,
दिल बहलाने को ,
टिकड़ी, सांप गोली मिलती थी ,
धन तेरस के दिन हम,
संग मम्मी के रंगोली बनाते ,
खुद भी लाल रंग से रंग जाते ,
बड़े हुए तो खुद बनाते ,
गेरू में तेल डाल घर रंग लाते ,
सारा दिन मोहल्ले में घूम देखते ,
किसकी ज्यादा अच्छी बनी ,
लास्ट में रात को बनाते खुद की ,
सुबह निकल जाते सबकी देखने ,
जबरन उबटन से रूप निखारा जाता ,
सारे दिन कभी इसके घर ,उसके घर ,
शाम को फिर पटाखे चलते ,
दिवाली के दिन सुबह से शुरू ,
अब तो बड़े पटाखे दिला दो ,
चलो बाजार , जल्दी करो ,
शाम को दिए संग मम्मी के सजाते ,
एक रंगोली बनती दीयों की,
संग सबके साथ सभी के ,
चलते खूब पटाखे ,
इंतज़ार रहता सब हो बन्द ,।
तब हम खूब चलाये ,
जाने कहाँ गई बचपन की दिवाली।।
सारिका औदिच्य