ईश्वर हमें मृत्यु से हटाकर अमृत वा मोक्ष की ओर ले चले
ओ३म्
संसार भौतिक प्रगति करते हुए प्रतिदिन नई-नई खोजें कर रहा है और मनुष्य जीवन को सुखी व सुविधाओं से युक्त कर दिन प्रतिदिन नये-नये उपकरणों का निर्माण कर रहा है। संसार में अध्यात्मवाद और भौतिक वाद पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि संसार में अध्यात्मिकता न के बराबर है। सर्वत्र भौतिकवाद ही दृष्टिगोचर होता है। भारत में अनेक मत-मतान्तर व उनके मठ-मन्दिर व पूजास्थल हैं परन्तु अपवाद को छोड़कर कहीं सच्चे अध्यात्म जैसा कि वेद व उपनषिद आदि प्राचीन ग्रन्थों में प्रतिपादित है, उसके दर्शन न के बराबर ही होते हैं। इसका मुख्य कारण सच्चे अध्यात्मवादी वैदिक धर्मी आर्यसमाजियों का संगठित न होना व प्रचार में शिथिलता ही प्रतीत होती है। हमारे अनेक विद्वान ऐसे मिल सकते हैं कि जो मंच पर बैठ कर आध्यात्मिकता पर प्रभावशाली प्रवचन करते हैं परन्तु जब उनके जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो उनके मन, वचन और कर्मों में अन्तर पाते हैं। आध्यात्मिकता का विश्व में संगठित, आशानुकूल व प्रभावशाली प्रचार न होना ही कारण हैं भौतिकवाद व अनैतिक कार्यों की वृद्धि। इतिहास में जायें तो हम ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार आदि सभी को मन, वचन व कर्म से एक देखते हैं। यही कारण था कि इनके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता था वह प्रभावित होता था। आज तो हमारे ऐसे भी विद्वान है जो स्वयं अपने लिये सत्संग व कथा आदि का कार्यक्रम आयोजित कराते हैं और फिर दक्षिणा को लेकर बहस व वितण्डा करते हैं। ऐसे में वेदों का प्रचार आगे कैसे बढ़ सकता है?
बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28 में ‘ओ३म् असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमयेति।’ वचन कहे गये हैं। इनका अर्थ अत्यन्त सरल व सुबोध है। हिन्दी पढ़े हुए प्रायः सभी व्यक्ति इन वचनों से परिचित हैं। इन वचनों में कहा गया है कि हम असत्य का त्याग कर सत्य मार्ग पर चलें। अन्धकार को छोड़कर प्रकाश के मार्ग का गमन करें। तीसरी प्रमुख बात यह कही है कि हम मृत्यु को प्राप्त न होकर अमृत को प्राप्त करने वाले हों। यह शिक्षायें भौतिकवाद की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाती। भौतिकवादी सत्य व असत्य का विचार न कर अपने सुख व सुविधाओं की ओर अधिक ध्यान देता है। इसका परिणाम यह होता है वह युवावस्था में क्षणिक व कुछ दिनों व महीनों के लिये सुख सुविधाओं को तो प्राप्त कर लेता है परन्तु उसकी वृद्धावस्था में उसकी भोग करने की क्षमता घट जाती है जिसका उसे पश्चात होता है। वह मृत्यु के विषय, इसके कारण व निवारण, का विचार नहीं करता। ऐसा करना उसको बुरा लगता है। इसी बीच मृत्यु आ जाती है और उसका आत्मा शरीर से निकलकर ईश्वर की व्यवस्था में अपने इस जन्म के कर्मों का फल भोगने के लिये परजन्म को प्राप्त होकर कर्मानुसार सुख व दुःख पाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् के ऋषि मनुष्य को आगाह करते हैं कि असत्य को छोड़ना है सत्य को धारण करना है। इसका लाभ जीवन में भी मिलता है और मृत्यु व उसके बाद अमृत व मोक्ष के रूप में भी मिलता है।
संसार में हम आध्यात्मवादियों को देखते हैं कि जो कर्मफल सिद्धान्त का वाणी से तो उल्लेख करते हैं परन्तु उनके व्यवहार में यह बहुत कम ही दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज को कर्मफल सिद्धान्त पर शोध कर इसके विभिन्न पहलुओं को लघु व वृहद् ग्रन्थों के द्वारा समाज के सम्मुख प्रस्तुत करना था। वेदों में कहां कहां कर्म फल सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है, वहां मन्त्रों में कर्म-फल के विषय में क्या कहा है, इसका संग्रह विवेचनापूर्वक उपलब्ध कराया जाना था। हमें प्रतीत होता है कि आर्यसमाज में ईश्वर व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि पर तो विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध हैं परन्तु कर्म-फल सिद्वान्त पर पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी, पं. विशुद्धानन्द शास्त्री व कुछ अन्य विद्वानों के बहुत कम ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। दर्शन ग्रन्थों में जन्म का कारण कर्म को बताया गया है। यदि ईश्वर व जीव अनादि न होते और जीव के पूर्वजन्मों के कर्म न होते तो ईश्वर इस सृष्टि को कदापि न बनाता। ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है तो उसका एकमात्र कारण है कि उसे जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख प्रदान करने हैं। हम इस जन्म में मनुष्य बने और हमें माता-पिता-परिवार व एक सुख व दुःख का वातावरण मिला। इसका कारण अन्य कुछ नहीं अपितु हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं। इसी प्रकार जो जीवात्मा जिस योनि व जिस प्रकार के सुख व दुःख की अवस्था में है, उसका कारण उसके पूर्वजन्म के कर्म ही हैं। यदि इस सिद्धान्त को संसार के विद्वानों से स्वीकार करा लिया जाता तो यह संसार सत्य मार्ग ‘असतो मा सद् गमय’ पर आ सकता था। हम व हमारे सभी दिग्गज विद्वान इस सिद्धान्त को मानते तो हैं परन्तु इसे वह अन्य विद्वानों व मताचार्यों से स्वीकार नहीं करा पाये। यह भी सत्य है कि कोई मताचार्य इन सत्य सिद्धान्तों को समझना ही नहीं चाहता। वैज्ञानिकों जैसी जिज्ञासु प्रवृत्ति मताचार्यों में देखने को नहीं मिलती। सत्य को अपनाने से यदि स्वार्थों की हानि होती हो तो उसे कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। यह बात अधिकांश रूप में देखने को मिलती है। ऐसे ही अन्य सिद्धान्तों की भी स्थिति भी है। ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप, वेद, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है परन्तु हम इसे आज तक किसी विपक्षी मत व विद्वान से स्वीकार नहीं करा पायें। हम अनुभव करते हैं कि हमें भविष्य में बड़े-बड़े सम्मेलन व समारोह न करके विद्वानों की गोष्ठियां इस बात के लिये आयोजित करनी चाहियें कि आर्यसमाज अपने सत्य सिद्धान्तों को विपक्षी मताचार्यों व विद्वानों से कैसे स्वीकार करा सकता है? इसका समाधान यदि विद्वान दे सकें, तो हमें लगता है कि यह मानव जाति सहित आर्यसमाज की बहुत बड़ी सेवा होगी।
उपनिषद के उपर्युक्त वचनों में कहा गया है कि हम अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। अन्धकार में तो कोई भी नहीं चलता। विज्ञान ने आज विद्युत का आविष्कार कर नाना प्रकार के प्रकाश उत्पन्न करने वाले बल्बो व उपकरणों का आविष्कार किया है। आजकल लेड लाइट व बल्बो का युग है जो बहुत कम विद्युत की खपत कर तीव्र शुभ्र प्रकाश देते हैं। उपनिषद के वचनों में इस प्रकाश की बात न होकर अविद्या व अज्ञान को दूर करने की बात की गई है। अविद्या व अज्ञान के अन्धकार को हम विद्या प्राप्त करके ही दूर कर सकते हैं। अविद्या दूर करने का सरल उपाय है कि हम ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करें। ऋषि ने इन ग्रन्थों में एक वैज्ञानिक की भाति वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, गीता आदि ग्रन्थों के तर्कपूर्ण प्रमाण देकर मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी सभी विषयों पर अविद्या से रहित विद्यायुक्त बातें प्रकाशित की हैं। इनका अध्ययन कर व इसके बाद अन्य सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर हम अपनी अधिकांश अविद्या को हटा सकते हैं। हम यह भी बता दें कि यजुर्वेद में अविद्या का अर्थ कर्मोपासना बताकर विद्या से अमृत व मोक्ष प्राप्ति की बात कही है। निश्चय ही यदि हम इन ग्रन्थों को पढ़कर इनके अनुरूप आचरण व व्यवहार करेंगे तो हमें इनमें कहे गये लाभ व फल अवश्य प्राप्त हो सकते हैं।
जो मनुष्य जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। उपनिषद के तीसरे व अन्तिम वचनों में यह बताया है कि हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करें और पुर्नजन्म न लेकर अमृत व मोक्ष की प्राप्ति करें। मृत्यु पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही जीवात्मा का लक्ष्य है। इसीलिये हमें परमात्मा से मनुष्य जन्म मिला है। हमें जीवन के आरम्भ के वर्षों में वेद विद्या को प्राप्त करना है और उसके अनुरूप आचरण करना है। विद्यानुरूप आचरण करने से ही हम बन्धन व दुःख के कारण पाप कर्मों से छूट कर ईश्वरोपासना आदि कर्मों से मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। इस सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ्स से महर्षि दयानन्द पर्यन्त सभी वैदिक ऋषि, मुनि, आचार्य और विद्वान मानते आये हैं। यह सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य एवं तर्कसंगत है। हम इसको समझेंगे और प्रचार करेंगे तो इससे हमें व अन्यों को लाभ होगा। हमारा व अन्यों का परजन्म सुधरेगा। महर्षि दयानन्द ने इन सिद्धान्तों को जानकर, इनकी परीक्षा कर और इन्हें सत्य पाने पर इन्हें अपने जीवन में धारण किया था और प्रचार भी किया था। इसी कारण हम और आर्यसमाज के सभी विद्वान व सदस्य इससे आज भी लाभान्वित हो रहे हैं। हम एक दृष्टि से और विचार करना चाहते हैं। जीवात्मा अनादि व अविनाशी है। जीवात्मा का अन्त न होने से यह अनन्त है। यदि हम अपने पूर्वजन्मों की कुल काल व समयावधि पर विचार करें तो यह अनन्त वर्षों की होती है। इस मनुष्य जन्म में हम 50 से 100 वर्ष तक ही जीते हैं। अतीत व भविष्य की अवधि की तुलना में हमारा यह जीवन अत्यन्त न्यून व क्षणभंगुर ही कहा जा सकता है। अतः इस जन्म में हम कोई असत्य व पाप कर्म न करें जिससे हमें आगामी जन्म में पशु-पक्षी आदि नीच येनियों में जाकर दुःख भोगने पड़े। यह लिखते हुए दुःख होता है कि अधिकांश भौतिकवादी लोगों के कर्म तो ऐसे ही हैं कि वह अगले जन्म में शायद ही मनुष्य बनें। जो बीत गया सो बीत गया परन्तु जो वर्तमान व भविष्य है उसे तो हम सुधार ही सकते हैं। आप विचार करें और स्वयं निर्णय करें। यदि हम असत्य से दूर सत्य मार्ग का अवलम्बन करेंगे, अन्धकार का त्याग कर प्रकाश व विद्या के मार्ग को अपनायेंगे और जन्म व मरण के कारण पाप कर्मों का त्याग कर जीवनमुक्त होकर पुण्य कर्म ही करेंगे तो निश्चय ही हमारा मोक्ष हो सकता है। ईश्वर सबको सत्य मार्ग और सत्याचरण में प्रवृत्त करे। इति ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य