ऋषि दयानन्द ने सभी मिथ्या आध्यात्मिक मान्यताओं एवं सभी सामाजिक बुराईयों का निवारण किया
ओ३म्
ऋषि दयानन्द सर्वांगीण व्यक्तित्व के धनी थे। आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें देखें तो वह आध्यात्म व योग के ऋषि कोटि के विद्वान थे। उनके सामाजिक योगदान पर दृष्टि डालते हैं तो वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने एक या दो सामाजिक दोषों पर ध्यान नहीं दिया अपितु सभी सामाजिक बुराईयों का उन्मूलन किया। वह एक ऐसे सच्चे महापुरुष थे जो सभी मनुष्यों एवं प्राणियों से प्रेम, दया, करूणा व मित्रता के भाव रखते थे। वह ऐसा इस लिये करते थे कि वह वेद ज्ञानी, सच्चे ईश्वर भक्त एवं उच्च कोटि के विद्वान थे। यदि वह ज्ञानी और योगी न होते तो सम्भवतः वह इन सद्गुणों से रहित होते जैसे कि हम समाज में आज कल के शिक्षित व अशिक्षित लोगों को देखते हैं। ऋषि दयानन्द जी में जो श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव थे उनका कारण उनका ज्ञान, अध्यात्म, योग, ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, जन्म-मरण विषयक रहस्यों का ज्ञान तथा ईश्वर की उन पर अत्यन्त कृपा का होना ज्ञात होता है। ऋषि दयानन्द को देखकर हम यह भी अनुमान कर सकते हैं कि महाभारत काल से पूर्व हमारे देश में जो ऋषि, मुनि, वैदिक विद्वान व राजा आदि होते थे वह सब वेदाध्ययन से ही श्रेष्ठ मानव व महापुरुष बनते थे। ऋषि दयानन्द जी ने अपने जीवन में ज्ञान, विज्ञान व अध्यात्म की जो खोजे की, उन्हें जो सत्य रहस्यों का ज्ञान हुआ, उसे उन्होंने केवल अपने बौद्धिक स्तर पर ही प्रवचन व उपदेश तक सीमित ही नहीं रखा अपितु उसे अपने आचरण में भी शत प्रतिशत स्थान दिया। उनके जीवन का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋषि दयानन्द ज्ञात इतिहास में सर्वोत्तम महापुरुष, ऋषि व महामानव थे। वह देश की आजादी के मन्त्रदाता, साहसी व वीर देशभक्त, सच्चे ईश्वर व सामाजिक ज्ञानी ईश्वर भक्त, वेदभक्त व वेदर्षि तथा तथा सर्वोत्तम समाज सुधारक थे।
स्वामी दयानन्द जी के आध्यात्मिक ज्ञान व साधना के स्तर पर दृष्टि डालें तो लगता है कि उन्होंने महाभारत काल के बाद विलुप्त सभी आध्यात्मिक रहस्यों का साक्षात्कार किया था और उसे अपने जीवन में अपनाया भी था। ऋषि दयानन्द को वेदों का सच्चा स्वरूप, ईश्वर व जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव आदि का यथार्थ व पूरा पूरा ज्ञान था। वह योग के सफल साधक थे और उन्होंने योग के अन्तिम दो अंगों ध्यान व समाधि को अपने जीवन व व्यवहार में सफल सिद्ध किया था। ईश्वर के ध्यान का अर्थ है ईश्वर व आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उसका चिन्तन करते हुए अपने मन को सभी सांसारिक बातों व विचारों से हटाकर केवल ईश्वर व आत्मा में ही लगाना व स्थिर करना। ऋषि दयानन्द को इस कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई थी। आजकल हम कई प्रकार के योगी देखते हैं। उनसे बात करें तो ज्ञात होता है कि उन्हें ईश्वर के वैदिक स्वरूप व यथार्थ गुणों का ज्ञान नहीं है। अनेक योगियों को मूर्ति पूजा करते हुए व पुराणों की सत्यासत्य सभी बातों में विश्वास करते हुए देखा जाता है। योग व ऋषि दयानन्द के वेद एवं आध्यात्मिक उच्च कोटि के साहित्य का अध्ययन करने के बात यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर का साक्षात्कार तो उन्हीं लोगों को हो सकता है जो ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी उपासना, ध्यान व चिन्तन में निरन्तर संलग्न रहते हैं और जिनका आचरण व व्यवहार पूर्णतः धर्मानुकूल अर्थात् वेद के सत्य सिद्धान्तों को अनुकूल हो।
वेद व सनातन धर्म से इतर मतों की यदि बात करें तो अनेक मतों में ईश्वर, जीवात्मा, सुष्टि उत्पत्ति का कारण, जीवात्मा के लक्ष्य तथा ईश्वर के कर्मफल सिद्धान्त का सत्यस्वरूप व इसका ज्ञान ही नहीं है। उन मतों में योग, ध्यान व समाधि का न तो विधान है न ही परम्परा है और न उनके अनुयायी इस ओर ध्यान ही देते हैं। अतः ईश्वर की प्राप्ति का उपाय प्रतिदिन सन्ध्या करना, वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना, सद्गुणों व सत्याचरण को धारण करना, मिथ्या कर्मों का परित्याग करना, देश व समाज के हित के कामों में तत्पर रहना तथा लोगों में सत्य वैदिक धर्म का प्रचार करना है। अपने अध्ययन के आधार पर हम अनुभव करते हैं कि ऋषि दयानन्द ने वेदों के जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन अपने ग्रन्थों में किया है वही धार्मिक व आध्यात्मिक जगत के सर्वश्रेष्ठ, ज्ञान-विज्ञान पर आधारित बुद्धि, तर्क व युक्ति संगत यथार्थ सत्य सिद्धान्त हैं। इनको अपनाकर ही मनुष्य जाति व किसी व्यक्ति विशेष का कल्याण व उद्धार हो सकता है। अन्य मार्गों पर चलकर जीवन के लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार व मोक्ष को प्राप्त नहीं किया जा सकता। सच्चा अध्यात्म यदि जानना है तो इसके लिये ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि आदि ग्रन्थों सहित उनके व आर्य विद्वानों के वेदभाष्य, दर्शन एवं उपनिषदों के भाष्य आदि को अनिवार्य रूप से पढ़ना होगा। बिना इसके किसी मनुष्य को अध्यात्म में पूर्ण सफलता मिलना संदिग्ध है।
ऋषि दयानन्द उच्च कोटि के महान ईश्वर भक्त व धर्म प्रचारक थे। इतना होने पर भी उन्होंने धर्म प्रचार के साथ समाज सुधार के कार्यों की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि समाज सुधार के सभी कार्यों को वैदिक विचारधारा व प्राचीन परम्पराओं के आधार पर समीक्षा कर प्रस्तुत किया। वेद ही संसार में एकमात्र ऐसे धर्म ग्रन्थ हैं जो ईश्वरीय ज्ञान होने से परम प्रमाण हैं। अन्य अल्पज्ञ मनुष्यों, विद्वानों व धर्माचार्यों के द्वारा रचित सभी ग्रन्थों में सत्य व असत्य मिश्रित है। वेद ईश्वर, जीव व प्रकृति तीन नित्य पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ईश्वर एक है। मुनष्य के सीमित ज्ञान के अनुसार जीवों की संख्या असंख्य व अनन्त हैं। ईश्वर सर्वज्ञ है, उसकी दृष्टि में जीवों की संख्या अनन्त न होकर सभी जीवों की संख्या ईश्वर को ज्ञात है। उसे मनुष्यों की दृष्टि में अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीव के अतीत व वर्तमान सहित उसके प्रत्येक कर्म जो वह कर चुका है, भोग चुका एवं जो शेष हैं, पूरा-पूरा सत्य ज्ञान है। ईश्वर ने जीवों को उनके अतीत के जन्मों में किये कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिये ही अनेक योनियों में उन्हें जन्म दिया है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्त्ता आदि गुणों से युक्त है। इसी कारण वह सृष्टि को बनाकर धारण करता है तथा सब जीवों को उनके कर्मानुसार सुख व दुःखों का भोग कराने के लिये नाना प्रकार की जीव-योनियों में जन्म देकर उनका पालन करता है।
परमात्मा सभी जीवात्माओं का माता, पिता, बन्धु, मित्र, सखा, राजा, न्यायाधीश, आचार्य, गुरु, अतिथि आदि है। सभी जीव उसके पुत्र व पुत्रियां हैं। इस कारण से सभी जीवात्मायें परमात्मा के परिवार में परस्पर बन्धु, भाई व बहिन आदि हैं। अतः ईश्वर के परिवार के अपने सगे भाई व बहिनों की तरह ही सबको अन्य मनुष्यों व प्राणियों के साथ व्यवहार करना चाहिये। यह पूर्ण सत्य है कि हमारे इस जन्म से पूर्व असंख्य जन्म हो चुके हैं और आगे भी यह क्रम जारी रहेगा। संसार में जितनी भी प्राणी योनियां हैं हम अतीत में उन सबमें में अनेक-अनेक बार रह कर आयें हैं, कई बार मनुष्य बनें, कई बार पशु, पक्षी, कीट व पतंग बनें एवं कई बार मोक्ष में गये हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ होने, भूलने की प्रवृत्ति एवं बार मृत्यु एवं शरीर परिवर्तन के कारण अपने पूर्वजन्मों को भूल जाता है। इस वैदिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में किसी मनुष्य को किसी मनुष्य के साथ अन्याय, शोषण, अनैतिक, मिथ्या, धोखा, छल, छुआछूत, ऊंच-नीच, हिंसा व हत्या आदि का व्यवहार नहीं करना चाहिये। जो मनुष्य अनैतिक व पाप कर्म करता है उन सभी कर्मों का साक्षी सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर होता है जो अपनी सत्य न्याय व्यवस्था से सभी जीवों को कर्मानुसार दण्ड व पुरस्कार देता है। ईश्वर से डर कर सभी मनुष्यों को पक्षपातरहित आचरण, न्याय, प्रेम, करूणा व दया आदि का व्यवहार करना चाहिये और अपने जीवन को सेवा, परोपकार व दूसरों के दुःख निवारण में लगाना चाहिये। यह सभी बातें ऋषि दयानन्द के साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होती हैं। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रमाण देकर सतीप्रथा, बाल विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत, ऊंच-नीच, शोषण, अन्याय, अत्याचार, धन-सम्पत्ति का परिग्रह, अशिक्षा आदि का विरोध व खण्डन किया, इन्हें मनुष्यता व ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध बताया। उन्होंने सबको वेदों व सभी विद्याओं के अध्ययन का अधिकार दिया जिसमें समाज के सभी स्त्री-पुरुष, दलित, शूद्र, अन्त्यज आदि सम्मिलित हैं। कम आयु की विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार है। इस आपद-धर्म कह सकते हैं। समाज व धनाड्य लोगों का दायित्व है कि वह सभी लोगों को शिक्षा, भोजन, आवास आदि की सुविधायें उपलब्ध करायें और सभी लोग को अपने-अपने ज्ञान व विद्या सहित शारीरिक बलाबल के अनुसार समाज व देश हित के कार्य करने चाहियें। कोई आलसी, निकम्मा वा कामचोर न हो, यदि हो तो वह दण्डित किया जाना चाहिये।
यहां यह भी उल्लेख कर दें कि अधिक सुख सुविधाओं में जीवन व्यतीत करने वाले तथा सन्ध्या व यज्ञ आदि न करने वाले लोग अपना यह मनुष्य जन्म व परजन्म बिगाड़ते हैं। सभी को पुरुषार्थी, अपरिग्रही, मितभाषी, मितभोजी, शाकाहारी, सभी पशुओं आदि प्राणियों पर दया करने वाला तथा व्यस्नों से दूर रहना चाहिये। सभी वेद व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने जीवन का सुधार व उन्नति करें, यही ईश्वर, उसके वेदज्ञान एवं ऋषि दयानन्द का सन्देश है। ऋषि दयानन्द ने हमें यह ज्ञान कराया है कि वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति संसार में सबसे महान हैं। हम भाग्यशाली हैं कि हमें भारत में जन्म मिला, वैदिक विद्वानों की संगति एवं वेद व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने का अवसर मिला है। हम अपने जीवन का सुधार व उन्नति कर इस जन्म सहित परजन्म को भी सुधार सकते हैं। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य