कुण्डलिया
1.
होना गुण का श्रेष्ठ है, नहीं जाति का भ्रात
अवगुण का जो घर बना, जन कुल पर आघात
जन कुल पर आघात, दम्भ बस पाले रहता
हुआ नशे में चूर, न समझे किस रो बहता
सतविंदर कह बीज, सही कौशल के बोना
इसका करो विकास, तरक्की इसका होना।
2.
चमड़ा चोखा चमकता, चमक गुणों की दूर
सच्ची सुंदरता दिखे, उस से कोसों दूर
उस से कोसों दूर, कर्म भी जिसके ओछे
फितरत से बदनाम, ढूँढता है जो मौके
‘सतविंदर’ वह शून्य, रहे देता जो धोखा
सुन्दर कर्म महान, नहीं है चमड़ा चोखा।
3.
जिसके लगते हैं अधिक, तुझको मीठे बोल
उसकी हर इक बात को, बन्दे पूरी तोल
बन्दे पूरी तोल, नहीं सच्चा ही होता
मुँह में रख वह राम, बगल में छुरी पिरोता
‘सतविंदर’ है स्वार्थ, सिद्धि बस मन में किसके?
लगा उसी पर ध्यान, शहद शब्दों में जिसके।
4.
देखूँ जब-जब आइना, दिखता तेरा अक्ष
जहाँ न तेरा वास हो, नहीं हृदय में कक्ष
नहीं हृदय में कक्ष, खयालों पर हक तेरा
होगा कहाँ वजूद, बता तुझ बिन क्या मेरा
‘सतविंदर’ कह प्राण, तुम्हारे कारण हैं सब
दिखे तुम्हारा रूप, जहाँ भी देखूँ जब-जब।
— सतविन्द्र कुमार राणा
सुंदर रचना