प्रेम और त्याग
प्रेम और त्याग
धरा !
धैर्य धारण किए,
खुद में समेटे अथाह
प्रेम और त्याग,
तकती रहती
अपने आसमां..
क्षण – क्षण खुद में
समाहित करती
आसमां के बदलते
हर स्वरूप..
कभी सूरज की
ज्वाला से झुलसती
ना केवल उसकी
आंखें, फट जाता है
कलेजा भी कभी कभी,
कभी स्निग्ध चांदनी की
शीतलता बन ओस की
बूंदें बढ़ा देती है प्यास,
पर नहीं छोड़ती आस
घूमती रहती अपनी
ही धूरी पर ….
जानती है स्वरूप बदलता
आसमां ही है
उसका अस्तित्व,
बदलना उसकी नियति है..
और जब पड़ती
बारिश की बौछारें
कर देती हैं सराबोर…
भूल सारी तपन,
सारी अधूरी प्यास,
खिलखिलाती धरा
लहलहा उठती है
पहन लेती है
धानी चूनर….
…………………..कविता सिंह