सृष्टि रचना का उद्देश्य जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान कराना
ओ३म्
मनुष्य चेतन प्राणी है। मनुष्य का शरीर पंच भौतिक तत्वों से बना है। पृथिवी (सूर्य, चन्द्र, सभी ग्रह व उपग्रह), अग्नि, वायु, जल, आकाश पंच भौतिक पदार्थ हैं। यह सभी पदार्थ जड़ हैं। इनका उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है जो कि जड़ है। यह प्रकृति अनादि? नित्य व अविनाशी तत्व है। सृष्टि में ईश्वर और जीव अन्य दो अनादि चेतन सत्तायें हैं। चेतन का गुण ज्ञान, प्रयत्न, क्रिया करना है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं सृष्टि के रूप में उत्पन्न व प्रकट नहीं हो सकती अपितु इसे एक ज्ञानवान, बलवान, इसके बाहर व भीतर व्याप्त चेतन सत्ता ही सृष्टि के रूप में रचना करके उत्पन्न कर सकता व करता है। यह सृष्टि सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, अविनाशी, अमर, नित्य ईश्वर से उत्पन्न हुई है जिसका उद्देश्य जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान करना है। यह ईश्वरीय सत्ता मनुष्य द्वारा योगाभ्यास की क्रियाओं से वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वाध्याय और हृदय गुहा में उपस्थित जीवात्मा में ईश्वर के निरन्तर चिन्तन, मनन, उसके प्रति पूर्ण समर्पण, असत्य का सर्वथा त्याग व परार्थ के लिये सतत प्रयत्नशील होने पर प्रकट होती है। ईश्वर ने ही जीवों के भोग व अपवर्ग के लिये इस जगत् की रचना की है। वही इस सृष्टि का पालन कर रहा है और इसकी अवधि पूर्ण होने इसकी प्रलय करेगा। प्रलय का कारण सृष्टि का आदि होना है। जो पदार्थ आदि व सादि स्वरूप व स्वभाव वाले होते हैं उनका अन्त व विघटन अथवा विनष्ट होना दर्शन शास्त्र व विज्ञान के नियमों के अनुसार अवश्म्भावी होता है।
संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं। इनके नाम है ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, न्यायकारी, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, पवित्र स्वभाव वाला है। वह आप्तकाम व सभी प्रकार की इच्छा एवं कामनाओं से मुक्त है। ऐसा कोई सुख व आनन्द नहीं है, जो उसे सुलभ व प्राप्त न हो। उसमें किसी प्रकार का कोई दुःख भी नहीं है जिसे दूर करने की उसको आवश्यकता हो। अतः आनन्दस्वरूप ईश्वर को किसी भी पदार्थ की इच्छा व अभिलाषा नहीं है यहां तक की उसे मनुष्यों से भी उसकी भक्ति व उपासना की आवश्यकता नहीं है। जीवात्मा एक अल्प व अणु परिमाण, निराकार, अल्पज्ञ, चेतन, आनन्द रहित, आनन्द व सुखाभिलाषी, एकदेशी, अल्प-ज्ञान-बल-क्रिया सामर्थ्यवाला अनादि व नित्य पदार्थ है जिसका कभी अभाव व अन्त नहीं होता। यह जीवात्मा अपने पूर्व कृत कर्मों के अनुसार उनके फल भोग के लिये जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति करते हुए यह जब सभी सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होकर ईश्वर साधना करते हुए योग विधि से ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है तब इसका मोक्ष अर्थात् मुक्ति हो जाती है। मुक्ति का अर्थ है जन्म व मरण से होने वाले दुःखों सहित मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म व मरण के बीच की अवधि में होने वाले सभी प्रकार के शारीरिक दुःखों से पूर्ण मुक्ति व उनकी निवृत्ति का होना। जीवात्मा का स्वभाव अपने अल्पज्ञ ज्ञान की सृद्धि करना और उसके अनुसार क्रिया कर अपने दुःखों की निवृत्ति करना वा सुख प्राप्त करना है। जीवात्मा के लिंग इच्छा, द्वेष, प्राण-अपान, सुख, दुःख, आंखे मींचना, इन्हें खोलना व बन्द करना, प्रयत्न करना आदि हैं। जैसा इसका कर्माशय अर्थात् भूतकाल में किये अभुक्त कर्मों का संग्रह होता है व उसके अनुरुप वासना होती है, उसी के अनुसार इसका जन्म होता है व इसे सुख व दुःख मिलते हैं। इसे मिलने वाले जन्म व सुख-दुःखों का दाता परमेश्वर है। दुःखों से मुक्त होने का एक ही उपाय है असत्य व पाप कर्मों का त्याग और शुभ व पुण्य कर्मों का आचरण। ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसका ध्यान व चिन्तन करते हुए अपने आप को सभी प्रकार के वेद व ऋषि ग्रन्थों के निषेधात्मक कर्मों का त्याग तथा सभी करणीय व विधेय कर्मों का आचरण। ऐसा करने से ही मनुष्य वा इसकी जीवात्मा दुःखों से मुक्त होती है और इसकी आत्मा का कल्याण व उन्नति होती है।
प्रकृति एक जड़ पदार्थ है। मूल व कारण प्रकृति में तीन गुण होते हैं जो सत्व, रज व तम कहे जाते हैं। इन गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति कहलाती है। विज्ञान की भाषा में यही धनात्मक, ऋणात्मक व जाड्य-निष्क्रिय आवेश वाले कण कहे जाते हैं। इनसे मिलकर परमाणु का निर्माण होता है। इन गुणों में विषमता व विकार होकर ईश्वर द्वारा इस सृष्टि का निर्माण होता है। प्रकृति के आरम्भ के कुछ प्रमुख विकार महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, पांच स्थूलभूत, अन्तःकरण चतुष्टय आदि हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश इसी प्रकृति का विकार हैं जिन्हें पंचमहाभूत कहा जाता है। मनुष्य का शरीर जिसमें पांच ज्ञान व पांच कर्मेन्द्रियां, अन्तःकरण जिसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि हैं, यह सब त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही विकार हैं। इन्हें ईश्वर सृष्टि के आदि में उत्पन्न करता है। अनेक लोगों को प्रकृति विषयक अनेक शंकायें होती हैं। कोई कहता है कि यह स्वमेव उत्पन्न हो जाती है। ऐसा सम्भव नहीं है। इसका कारण प्रकृति का जड़ होना है। जड़ पदार्थों में किसी प्रकार की बुद्धि व ज्ञानजन्य सहेतुक रचना होने की सामर्थ्य नहीं है। सभी रचनायें किसी चेतन सत्ता जिसे निमित्त कारण कहते हैं, उसी के द्वारा सम्भव होती हैं। आटे, ईधन, चूल्हा, सभी प्रकार के पात्र व बर्तन, जल आदि के एक स्थान पर होने पर भी किसी स्थिति में रोटी नहीं बन सकती जब तक कि कोई चेतन सत्ता के रूप में मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरुष रोटी को न बनावें। इसी प्रकार से यह सृष्टि भी बिना निमित्तकारण परमात्मा के बिना बनाये स्वमेव उत्पन्न नहीं हो सकती। कुछ लोगों का भ्रम है कि यह सृष्टि ईश्वर से बनी है। वह ईश्वर को सृष्टि का उपादान कारण भी मानते हैं या इसकी उपेक्षा करते हैं। सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर सृष्टि का उपादान कारण नहीं है। यह इन विचारों की विद्वानों की भ्रान्ति है। जिस प्रकार मनुष्य बिना भवन सामग्री के मकान नहीं बना सकता, रसोईयां बिना खाद्य व अन्य सामग्री के भोजन तैयार नहीं कर सकता, आचार्य बिना पुस्तकों व विद्यार्थियों को अध्ययन नही करा सकता, उसी प्रकार ईश्वर केवल अपने अस्तित्व से बिना सृष्टि निर्माण में सहायक जड़ परमाणुरूप सामग्री के सृष्टि को नहीं बना सकता। कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि यह सृष्टि सदा से बनी हुई है ओर सदा इसी रूप में बनी रहेगी। यह मान्यता भी विज्ञान व दर्शन शास्त्र के सिद्धान्तों व मान्यताओं के विरुद्ध है। जो पदार्थ सावयव अर्थात् अवयवों से मिलकर बना होता है, जैसी की यह सृष्टि है, वह नाशरहित व अनन्त न होकर नाशवान होती है। अतः ईश्वर द्वारा उपादान कारण प्रकृति से बनी यह सृष्टि ईश्वर की अनादि प्रजा जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार सुख-दुःखरुपी फल भोग एवं अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के लिए बनी है। इसे जानकर हमें दुःखों के कारण अज्ञान, अविद्या, मिथ्या आचरण व पापाचरण को दूर करना है और ईश्वरोपासना एवं सदाचरण को धारण कर दुःखों से मुक्त होकर अपवर्ग अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करना है।
हमने मनुष्य के जन्म-मरण तथा सुख-दुःख के कारणों व अपवर्ग वा मोक्ष पर संक्षेप में चर्चा की है। यह भी बताया है कि हमारी यह सृष्टि और हमारे शरीर परमात्मा ने हमारे पुण्य व पाप कर्मों के फलों का भोग कराने के लिये बनाये हैं। इस विषय को अधिक विस्तार से जानने के लिये स्वामी दयानन्द कृत ‘‘सत्यार्थप्रकाश”, दर्शन ग्रन्थों सहित स्वामी विद्यानन्द सरस्वती कृत दार्शनिक शैली पर लिखा गया ‘‘तत्वमसि” ग्रन्थ पढ़ना चाहिये। इसे पढ़कर आप सृष्टि सहित ईश्वर एवं जीवात्मा विषयक सभी रहस्यों एवं इनके सत्य स्वरूप को जान सकेंगे। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य