लघुकथा

किस्सा कुर्सी का

रेल में यात्रा करते समय मेरे कान कुछ सुनने के लिये मचल गये। आँखों में आँसू आ गये! ह्रदय पर भी चोट के थपेड़ों ने सोचने पर मजबूर कर दिया था! परन्तु मेरे पास क्या? किसी के पास भी इसका कुछ हल नहीं था। चाह कर भी हम कुछ नहीं कर सकते थे।

दो बेरोज़गार युवक संजय और मोहन आपस में बात कर रहे थे “ यार इतनी पढ़ाई करी, इतने क़लम बदले पर सरकारी सीट ना प्राप्त कर पाये। कितने पद रिक्त पड़े है अगर सरकार चाहे तो वह आरक्षण के ख़ाली पदों को जनरल से भर सकती है पर! कुर्सी का यही तो खेल है भाई! “ कहते हुए दोनों धीर-गंभीर हो जाते हैं!

पूरी बोगी में सन्नाटा छा जाता है क्योंकि आज जनरल कोटे का सरकारी नौकरी में यही हाल है। काश! कुर्सी पर बैठने वाले अपनी स्याही का रंग थोड़ा सा बदल दें तो शायद क़लम भी अपना आकार बढ़ा दे और ……

नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक