“सोशल मीडिया पर साहित्य, लाभ या हानि”
“सोशल मीडिया पर साहित्य- लाभ या हानि”
“हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस बिधि हाथ”, बाबा तुलसी दास जी ने कुछ भी नहीं छोड़ा, हर विषय पर कटु सत्य को उजागर कर गए। काश उस समय सोशल मीडिया होता तो हमें अपने मन से कुछ भी लिखने की जरूरत न पड़ती और हम कट, पेष्ट या गूगल सर्च करके उन्हीं के विचार छाप देते और सम्मानित हो जाते पर दुर्भाग्य देखिए सब कुछ परिवर्तन की बाढ़ में बहता हुआ प्रतीत हो रहा है और “मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठि”।
खैर, विषय है “सोशल मीडिया से लाभ या हानि” तो इस पर भी संगत होने के लिए शायद तुलसी दास जी ने लिखा है “जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी” कुछ ऐसा ही दृश्य सोशल मीडिया का भी है। जिसने जो चाहा वह उसे मिलता है, कोहिनूर ढूढने वाला हीरा पा रहा है और मदिरा ढूढ़ने वाला जाम, दोनों के अपने-अपने लाभ व हानि भी है तो यही कहना उचित होगा कि शुभ-लाभ यानी पहले शुभ हो फिर लाभ हो पर इसका उल्टा करें तो लाभ-शुभ होता है जिसका मतलब पहले लाभ फिर शुभ। पर शुभ -लाभ में परमार्थ है और लाभ- शुभ में स्वार्थ, दीपावली आकर गई, दोनों का दृश्य दिखा भी होगा, समझना हम सभी को है। जैसे “सकल पदारथ है जग माहीं, करम हेतु नर पावत नाहीं” जग में सब कुछ भरा पड़ा है आभासी और सोशल मीडिया में भी सब कुछ भरा पड़ा है। लाभ-हानि की छोड़िए हो सके तो दीपावली में पटाखे न जलाएँ स्वांस के मरीज को तकलीफ होती है, पर्यावरण खराब होता है इत्यादि पर कौन सुनता है आवाज के सामने, हाँ आग लगने पर कुआँ खोदने का कार्य जरूर होता है, सब कुछ स्वाहा होने के बाद अकल ठिकाने तो आती पर दूसरी दिवाली तक किसे याद रहता है।
कुछ ऐसा ही है सोशल मीडिया का भी, हैलो, हाय होती है बातचीत भी होती पर पट दर्शन नहीं होता, तस्वीर ही सब कुछ है मन में आया तो मन मिला लिया, लिंग और आयु भगवान भगवान भरोषे पर चलता रहता है। कविता, मुशायरा, कथा-कहानी सब कुछ सुनाई देता है पर ममत्व का आलिंगन नहीं होता है। भजन कीर्तन एक माँगों तो लाखों स्वर उभर आते हैं, फूल माला और अगरबत्ती भी सुलग जाती है और देवता प्रसन्न हो जाते है पर मंदिर नहीं बन पाता है, घर नहीं बस पाता है। सत्य-झूठ का पता लगाना आसान तो है पर तर्क-वितर्क के डर से लोग-बाग मौनी बाबा बनना ही पसंद करते है और व्यस्त हैं अपनी-अपनी रोजी-रोटी में, अपने-अपने मोबाइल को चिपकाए हुए। लाभ ही लाभ है फिर हानि कहना दूसरी झंझट को निमंत्रण देना है। मोबाईल से दूर रहो या मना करने पर परिवार के बिखरने का डर भी है। साहित्य की भली कही, पढ़ना लिखना आसान तो हुआ है पर गुरुदक्षिणा लेने वाले गुरुवों की भरमार है वजह भी है कविगण लेखन से ज्यादे छपने और नाम कमाने के आग्रही हैं। प्रकाशन कोई आसान काम तो है नहीं लिखने वालों से ज्यादे सुधारने वालों को मेहनत करनी पड़ती है, शायद इसी वजह से घुन के साथ गेंहूं भी पीसा जा रहा है। एक बात तो हुई है कवियों के साथ साहित्य लेखन का हुजूम खूब बढ़ा है तो लाभ ही लाभ दिख रहा है।
लेखक, कवि, साहित्यकार क्या है इस पर नजर डाले तो अपनी रचना पर संशय के साथ जीने वाला रचनाकार अपने लेख में सत्य का दावा नहीं करता और पाठक उसके सत्य का निर्धारण करते हैं जब कि नेता, समाजसेवी, दैनिक पत्र, पत्रकार और अब मीडिया भी ताल ठोककर कहते सुने जा सकते हैं कि मैंने जो कहा है वह सत्य प्रतिशत सत्य है जो शायद न संभव हुआ है न होगा। इसी लिए शायद कवि की उपमा रवि से भी अधिक है, जहाँ न जाये रवि वहाँ पहुँचे कवि। इसकी वजह यही है कि वह सत्य को संशय के दायरे में ही देखता है और अपने शब्द व भाव को हमेशा माँजते रहता है और अपने बर्तन को सदैव स्वच्छ रखने का निरंतर प्रयास करता है। न लाभ की सोचता है न हानि पर विलाप करता और अगली रचना पर खुद को निछावर करते रहता है, जय जय हो विनम्र कवि की, जय हो मोबाइल बाबा की, जय हो सोशल मीडिया का।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी