ग़ज़ल
मैं अपनो को दिए कर्ज नहीं गिनाती
निभाती हूं रिश्ता मैं फर्ज़ नहीं गिनाती
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बहाया है मैंने खून पसीना बहुत सा
ज़िन्दगी पर गुज़रा मैं हर्ज़ नहीं गिनाती
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गुज़ारी हैं जो रातें परवाह में मैंने
उन टूटी नींदों के मैं गरज नहीं गिनाती
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कांधे पर सर रखकर रोए थे कभी जो
उन उखड़ी सांसों की मैं तर्ज़ नहीं गिनाती
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लुटती दुनिया का मुझको दिया था वास्ता
अपनों का साथ देने के मैं अर्ज़ नहीं गिनाती
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रिश्तों का खून करके हंसते हैं बहुत लोग
कैसे है क्या क्या मुझपे मैं दर्ज़ नहीं गिनाती
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बना रखी है मेरी क्यों तस्वीर उसने उल्टी
वहम से पैदा हुए उसे मैं मर्ज नहीं गिनाती
— शिप्रा खरे (गोला-खीरी)