लघुकथा

चिरकालिक व्यथा

मैं कब से देख रही थी उसे,अथाह पीड़ा के साथ – साथ उसकी आंखों में घृणा की ज्वाला भी धधक रही थी। मेरी नजर ने उसके निगाहों का पीछा किया और जो दृश्य मुझे दिखाई दिया उसे देखकर मैं भी सिहर उठी। एक देह जो जगह – जगह से सिली गई थी उसे दो नर देह नशे में चूर होकर नोंच खसोट रहे थे, वो निडर थे क्योंकि निर्जीव देह से रक्त नहीं रिसता है।अरे ये देह तो उसी की है जो लगातार उन्हें घूर रही थी।

 “क्या देख रही हो बहन?” मेरी आवाज़ पर वो अचानक पलटी और मुझे लहूलुहान देखकर डर गई। मैंने कहा— ” तुम अपनी देह की दुर्गति देखकर व्यथित हो, ये देखो मेरी दुर्गति तो मेरे अपनों के ही हाथों हुई जिससे मेरी आत्मा भी लहुलुहान होकर भटक रही है।” मैं उसे अपने साथ ले गई वहां जहां मेरी देह को गलाया गया था।” देखो उधर दो नमक की बोरियों के बीच मेरी कंकाल पड़ी है अपने ही घर में।”

पहले इन लोगों ने अपने साथियों के साथ मिलकर मुझे नोंचा खसोटा और तब भी जब मैं नहीं मरी तो मुझे बेहोशी के हाल में जिंदा ही इन बोरियों में दबा दिया,दो दिनों तक तड़पती सिसकती रही,और ये राक्षस बगल में बैठे हंसते रहे। मैं कुलटा थी भाग गई ये प्रचार किया इन्होंने और जानती हो क्यों ? क्योंकि दूसरी आयेगी तो मुझसे भी ज्यादा दहेज लेकर आयेगी।

” तुम्हारी आत्मा तो तुम्हारी अंतिम संस्कार के बाद मुक्त हो जाएगी पर मुझे तो भटकना है अनंत काल तक………

कविता सिंह

कविता सिंह

पति - श्री योगेश सिंह माता - श्रीमति कलावती सिंह पिता - श्री शैलेन्द्र सिंह जन्मतिथि - 2 जुलाई शिक्षा - एम. ए. हिंदी एवं राजनीति विज्ञान, बी. एड. व्यवसाय - डायरेक्टर ( समीक्षा कोचिंग) अभिरूचि - शिक्षण, लेखन एव समाज सेवा संयोजन - बनारसिया mail id : [email protected]