जो थे गुमराह कभी वही राहबर बन गये।
तमाम फूल जिंदगी के पत्थर बन गये।
दूर तलक दरख़्तो के साये नही,
बुलबुलों की मीठी सदाएं नहीं,
मीलों तक बस पत्थरों के घर बन गये।
ये कैसा आया है अब के दौरे खिजां,
हर कोई भूल गया प्यार की जुबां,
मुरझा गये फूल पत्थर खंज़र बन गये।
मौसम का मिजाज इतना सख्त नहीं है,
मगर क्या करें लोगों के पास वक्त नहीं है,
इंसां की बस्ती थी अजनबियों के शहर बन गये।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर “