काश के सपनों के गांव में होतीं पगडण्डीयाँ।
पांव पांव चलते और पा लेते खुशीयाँ।
पर्वत पर्वत फूल खिलाते होते साथ साथ,
चांदनी को समेटे हम करते अठखेलियाँ।
गहरे पानी में मोती मिलेंगे धीरज न खोना,
रेत के समंदर में हैं सिंर्फ खोखली सीपीयाँ।
मरना लाज़िमी है तो क्यूं मर मर के जिएं,
गर के हम आंसुओं में जिये तो क्या ख़ाक जिया।
अपने हौसले पर ही एतबार करो सागर,
एक दिन संवर जाएगी दर्द की बस्तियाँ।
— ओमप्रकाश बिन्जवे ” राजसागर “