गीतिका/ग़ज़ल

वक़्त तो लगता है

टूटे दिल को फिर जुड़ने में वक्त तो लगता है
ठहरे पानी को बहने में वक्त तो लगता है

माली गुलशन के कितने ही क्यों न बदल डालो
सूखा पौधा फिर खिलने में वक्त तो लगता है

कोई दूजी बातें होती तो कह देता यों
उल्फत की बातें कहने में वक्त तो लगता है

कितनी भी क्यों ना हो शिद्दत तेरी मोहब्बत में
उजड़ी दुनिया को बसने मे वक्त तो लगता है

डूबी साहिल पर कश्ती गर ऐसी कश्ती को
फिर से दरिया पर चलने में वक्त तो लगता है

ऊंचा उड़ने की पहले से जिसको आदत हो
छोटे पिंजरे में रहने में वक्त तो लगता है

कैसे उससे मिल पाऊंगा इतनी जल्दी मैं
खुद को खुद से भी मिलने में वक्त तो लगता है।

डॉ. विनोद आसुदानी

अंग्रेजी में पीएचडी, मानद डीलिट, शिक्षाशास्त्री, प्रशिक्षक संपर्क - 45/D हेमू कालानी स्क्वायर, जरीपटका, नागपुर-440014 मो. 9503143439 ईमेल- [email protected]