“कठपुतली“
हां,हम बन
जाते हैं कठपुतली..
निर्जिव, निष्प्राण,
आश्रित…
भावनाओंके हाथों
धागा हिलता है और
हम नाचते – गाते,
हसते – रोते…
हां पर
भावनाएं तो
हमारी अपनी, फिर ?
फिर क्यों
हम बन जाते हैं
कठपुतली???
क्यों दे देते हैं
किसी को अपनी
भावनाओं को छेड़ने
का अधिकार?
जो जब चाहे हंसाए
जब चाहे रुलाए ।
कविता सिंह