सामने वाली खिड़की में
मेरे मोहल्ले में दिवाली सी ही रौनक रहती है
सामने वाली खिड़की में साँवली लड़की रहती है
सँवर के आए अप्सरा से और आईना न देखे
वो शायद अपने ही नर्गिसी रूप से डरती है
ज़ुल्फ़ में घटा,आँख में बिजली,होंठों पे शरारा
हर एक अदा से अपने वो सौ गुनाह करती है
पलकें गिराके रात,पलकें उठाके दिन करे
सूरज की तमाम रात यूँ ही तबाह करती है
जो देखे कभी झरोखें से पर्दा उठाके
चाँदनी देखके नूर उसका आँहें भरती हैं
— सलिल सरोज