आना कभी मेरे गाँव
अच्छी नौकरी,चमचमाती गाड़ी,आलीशान बंगला फिर भी बेचैन से रहते हैं
कुछ तो था मेरी उस टूटी झोपड़ी में कि सूखी रोटी से भी काम चल जाता था
सब कुछ पाकर भी साफ हवा,शुद्ध पानी,स्वच्छ निबाले को तरसते रहते हैं
गाँव की खेतों में सोते थे तो चाँदनी सिरहाने लगाती,सूरज जगाता था
हासिल हर चीज़ पर जिस्म थका,मन बोझिल और रूह बीमार सी रहती है
वहाँ पीपल का पेड़ तो कभी बूढ़ा बरगद इश्क़ की कहानियाँ सुनाने आता था
कोई नहीं है यहाँ सुनने वाला और न ही किसी के पास है कुछ भी कहने को
गाँव में टूटी सड़कों का बदन जले तो सावन बेमौसम ही दिन रात रोता था
ये सब सिर्फ कहने या लिखने की बातें नहीं या अफसानों की कोई जिस्त नहीं
आना कभी मेरे गाँव तो पता चले कि सच मुच में कहीं ऐसा भी होता था
— सलिल सरोज