आर्यसमाज में मेरा 18 वर्षों का अनुभव
(आज 28/11/2018 को जन्मदिवस के अवसर पर आप सभी मित्रों का मंगल कामना एवं बधाई सन्देश मिला। उनका कोटि कोटि धन्यवाद। अनेक मित्रों ने इस अवसर पर अपने आर्यसमाज के अनुभवों को साँझा करने का निवेदन किया। मैं मेरे आर्यसमाज में 18 वर्षों के अनुभव को एक लेख के माध्यम से आप सभी से साँझा कर रहा हूँ। -डॉ विवेक आर्य)
मैं डॉ विवेक आर्य, पेशे से शिशु रोग विशेषज्ञ हूँ। मेरे परदादा स्वर्गीय श्री रामकिशन जी ने स्वामी दयानन्द के दर्शन दिसंबर सन् 1878 में रिवाड़ी प्रवास के दौरान किये थे। स्वामी जी के पांच भाषण मेरे परदादा जी को सुनने का अवसर मिला था। स्वामी जी की दिव्य आभा, चेहरे का ओज, ज्ञान के सागर से प्रभावित होकर मेरे परदादा जी वही से वैदिकधर्मी बन गए। आर्यसमाज से उन्हें इतना प्रेम था कि कोर्ट में गवाही देते हुए यही कहते थे। मैं आर्यसमाजी हूँ, स्वामी दयानन्द का शिष्य हूँ। असत्य नहीं बोलूंगा। लोगों ने उनकी इस प्रवृति का बड़ा अनावश्यक लाभ उठाया। मगर वह कभी विचलित हुए। परिवार को इस कारण से दरिद्रता के दिन भी देखने पड़े। परदादा जी ने लाला लाजपत राय के सहयोग से आर्यसमाज हांसी, जिला हिसार की स्थापना सन 1901 में की थी। समाज के लिए जमीन लाला जी के सहयोग में मिल गई। मेरे परदादा जी ने अपनी एक दुकान बेचकर 500 रुपये में आर्यसमाज के भवन का निर्माण करवाया था। परदादा जी हिन्दू समाज में प्रचलित अंधविश्वास के अत्यंत विरोधी थे। हांसी में उन दिनों भूतों के नाम से एक अन्धविश्वास फैला था। लोग अपने बच्चों की किसी भी बीमारी का श्रेय भूतों के चिपकने को देते थे। भूत उतारने के नाम पर वे हलवा-पुरी बनाकर चौराहे पर रख आते थे। उनकी यह मान्यता थी कि जो इस भोजन को खायेगा। उसे भूत चिपक जायेगा। परदादा जी भोजन की बर्बादी को देखकर अत्यंत व्यथित होते थे। आप चौराहे पर अपने पुत्रों को ले जाकर सभी के सामने वह भोजन उन्हें खिलाते और कहते थे कि देखों मेरे पुत्रों को कोई भूत नहीं चिपका। कोई भी रोग प्राकृतिक कारणों से होता है। न की भूतों के कारण। उनके इस अभियान का जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ा। ध्यान दीजिये मेरे दादा जी उनके दोनों बड़े भाई 85 से 98 वर्ष आयु तक जीवित रहे। सन 1925 में मथुरा में संपन्न हुई जन्म शताब्दी में सपरिवार उन्होंने भाग लिया था। स्वामी श्रद्धानन्द और लाला हंसराज से वे निरंतर संपर्क में रहते थे। सन 1933 में अजमेर में स्वामी दयानन्द निर्वाण अर्धशताब्दी में भी वे गए थे। उनकी मृत्यु उसके कुछ काल बाद हुई थी। मेरे दादा जी स्वर्गीय श्री ब्रहमराज जी भी अपने पिता के आदर्शों पर चलने वाले थे। आप 1939 में हैदराबाद आंदोलन के समय केवल 14 वर्ष के थे। आप हैदराबाद जाने वाले सत्याग्रहियों के लिए गले में झोला डाल कर आटा और आना इकट्ठा करने के लिए सुबह सुबह निकल जाते थे। शाम को एकत्र हुआ आटा और धन आर्यसमाज के फंड में जमा करवाते थे। इस फण्ड से सत्याग्रहियों को शोलापुर जाने का किराया और भोजन बनाकर दिया जाता था। दादा जी ने अपने जीवन में उन्हीं आर्य आदर्शों को जिया। 1957 में हिंदी आंदोलन में उनके वारंट निकले थे। तब वह आर्यसमाज हांसी के मंत्री थे। मेरे दादा जी के बड़े भाई श्री देवराज आर्य जी थे। आप अर्थशुचिता की मिसाल थे। एक बार हांसी में आपका एक मित्र बीमार पढ़ गया। उसकी मृत्यु कुछ दिनों में होने का अंदेशा था। उसकी संतान उस समय नाबालिग थी। उसने देवराज जी और कहा -आप आर्य है। मुझे आप पर पूरा भरोसा है। मेरी संपत्ति का मालिकाना हक मैं आपको देता हूँ। मुझे मेरे रिश्तेदारों पर भरोसा नहीं है। आप पर है। आप जब वह बालिग हो जाये तो उन्हें यह सम्पत्ति वापिस कर देना। वह मित्र अपनी सम्पत्ति उनके नाम कर गुजर गया। देवराज जी भी कुछ काल बाद हांसी छोड़कर दिल्ली आ गए। कई वर्षों पश्चात उस मित्र की संतान बालिग होने पर दिल्ली आकर कागज़ों पर हस्ताक्षर करवाकर अपनी सम्पति ले गई। उन्होंने इसे अपने कर्तव्य का निर्वाहन एक आर्य में किया। मुझे आपने पूर्वजों पर गर्व है। यह मेरे परिवार का संक्षिप्त सा परिचय था।
वर्तमान में मैं आर्यसमाज के कार्यों को आज के सन्दर्भ में उसी लग्न से करने के लिए प्रयासशील हूँ। जिस लग्न से मेरे पूर्वजों ने किया था। मेरा जन्म 1980 में हुआ था। जन्म से लेकर 20 वर्ष तक मैं परिवार के साथ आर्यसमाज जाता रहा। हवन आदि करना सीख लिया था। वैदिक संस्कार और सिद्धांतों का प्रारंभिक परिचय आर्यसमाज के माध्यम से मिलता रहता था। 2001 से मैं MBBS की शिक्षा के दौरान आर्यसमाज का साहित्य पढ़ने लगा। यह इंटरनेट का युग था। इसलिए साहित्य के साथ साथ इंटरनेट पर भी सक्रिय हुआ। इस लेख में मैं अपने जीवन की कुछ अनुभव आपसे विचार करना चाहूंगा।
1. लेख लेखन का अनुभव
मेरा सर्वप्रथम लेख शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, जींद ,हरियाणा से प्रकाशित में छपा। मेरी आयु उस समय केवल 20 वर्ष थी। यह सौभाग्य बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है। पत्रिका के संपादक श्री सहदेव शास्त्री जी मेरे बाल्यकाल के अध्यापक थे। उन्होंने प्रोत्साहन देकर मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। भाषा का अशुद्धियों से लेकर लेख के शीर्षक तक का संपादन किया। परिणाम यह निकला कि मैं और अधिक श्रम कर लिखने का प्रयास करने लगा। मेरे अनेक लेख शांतिधर्मी पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित हुए। अनेक वर्ष लिखने के पश्चात एक दिन डॉ रामप्रकाश, पूर्व सांसद, राज्यसभा का मेरे एक लेख को लेकर प्रोत्साहन भरा फ़ोन आया। इससे मेरा आत्मविश्वास और अधिक बढ़ गया। पाठकों की लेखों को लेकर प्रतिक्रियाएं भी मुझे अधिक श्रम करने के लिए प्रेरित करती थी। शांतिधर्मी पत्रिका और मेरे गुरु श्री सहदेव जी को मैं कोटि कोटि धन्यवाद देना चाहूंगा। उन्होंने सबसे प्रथम मंच को उपलब्ध करवाने, सकारात्मक लिखने, शोधपूर्वक लिखने, सामयिक लेखन के लिए लिखने के लिए प्रेरणा दी। शांतिधर्मी के पश्चात स्वर्गीय डॉ जयदेव आर्य के सम्पादक काल में आर्यजगत में कुछ लेख छपे। उसके पश्चात परोपकारी पत्रिका और दयानन्द संदेश, जनज्ञान, आर्य सन्देश, गुरुकुल दर्शन आदि पत्रिकाओं में भी लेख छपे। इस लेखन के कारण आर्यसमाज में अनेक स्थापित लेखकों से परिचित हुआ। इससे बहुत कुछ सिखने को मिला। आज भी मेरे द्वारा लिखे गए लेखों का प्रकाशन अनेक विभिन्न पत्रिकाओं में हो रहा है।
2. पुस्तक संपादन/लेखन का अनुभव
मैंने आज तक तीन अंग्रेजी पुस्तकों का संपादन किया है। पहली पुस्तक SWAMI DAYANAND : in the eyes of some Distinguished Scholars ( English) के नाम से गोविंदराम हसानंद के यहाँ से प्रकाशित हुई। यह पुस्तक 1925 में मथुरा जनशताब्दी के समय प्रकाशित हुई थी। यह इसका पहला पुन: प्रकाशन था जो पुरे 90 वर्ष पश्चात 2014 में प्रकाशित हुआ था। दूसरी पुस्तक एम.आर जंबुनाथन द्वारा लिखित स्वामी श्रद्धानन्द जी की जीवनी के रूप में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित हुई थी। तीसरी पुस्तक स्वामी श्रद्धानन्द लिखित हिन्दू संगठन का अंग्रेजी अनुवाद था। इन पुस्तकों में श्री अरुण लवानिया जी ने सहयोग दिया। ये पुस्तकें 2016 में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से धर्मपाल आर्य जी के सहयोग से प्रकाशित हुई।
मेरे द्वारा लिखित सर्वप्रथम पुस्तक “मैंने ईसाई मत क्यों छोड़ा” ब्रह्मचारी अरुण आर्यवीर के साथ 2006 में लिखी गई थी। यह पुस्तकरूप में कभी प्रकाशित नहीं हुई। मगर इंटरनेट पर e-book के रूप में पढ़ने हेतु उपलब्ध है। इस पुस्तक में ईसाई मत की मान्यताओं का विश्लेषण किया गया हैं। ब्रह्मचारी अरुण का जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के अनुभव भी इस पुस्तक में दिए है। इंटरनेट पर पढ़ने वाले लोग इसकी सराहना करते है।
मेरे द्वारा लिखित दूसरी पुस्तक सन 2016 में “वेदों को जाने” के नाम से आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक मेरे इंटरनेट पर युवकों द्वारा वेद सम्बंधित शंकाओं के समाधान का संकलन है। वेदों के विषय में पर्याप्त भ्रांतियां वर्तमान में सामने आती है। इन भ्रांतियों को मुख्यात विधर्मी, नास्तिक, अम्बेडकरवादी आदि उठाते हैं। इस पुस्तक का उद्देश्य इन्हीं भ्रांतियों का निवारण है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि पाठकों से मिले अनुभव पर मैं यह आसानी से सकता हूँ कि अपने उद्देश्य की पूर्ति में यह पुस्तक सफल हुई है। 2 वर्षों में इस पुस्तक के 12700 प्रतियां प्रकाशित हुई है। वर्तमान जीवित लेखकों में आर्यसमाज में संभवत ही इतनी संख्या में किसी लेखक की आर्यसमाज में कोई पुस्तक छपी हो। इस पुस्तक का नेपाली में अनुवाद हो चूका हैं। बंगला और मलयालम में अनुवाद चल रहा हैं। भविष्य में मेरा उत्कृष्ट लेखन करने की वृहद इच्छा है। मेरी इच्छा है कि आर्यसमाज द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान, नारी उत्थान में योगदान और दलितोद्धार में योगदान पर शोधपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे गए। जो पढ़ने वालों को हमारे इतिहास से प्रभावशाली रूप से परिचित करवाए।
3. पुस्तक प्रकाशन में सहयोग-
वैदिक पुस्तकों के प्रकाशन में सदैव रुचि रही है। पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि मेरा सबसे पहले सहयोग मलयालम भाषा के सत्यार्थ प्रकाश के नवीन प्रकाशन में था। उस समय मेरी आयु केवल 23 वर्ष थी। तब मैं कोयम्बटूर, तमिलनाडु में MBBS का छात्र था। उस काल में मेरा स्वर्गीय नरेंदर भूषण जी के पास केरल जाना हुआ। मैंने पाया कि उनके पास धन का अभाव था मगर उनका समर्पण भाव बहुत था। मैंने संकल्प लिया कि मैं सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन में सहयोग करूंगा। मैंने देश-विदेश से 2003 में 70000 रुपये एकत्र कर प्रकाशन हेतु दिए थे। यह मेरा पहला अनुभव था। बहुत कुछ सिखने को मिला। मलयालम भाषा का इससे पूर्व 1978 में प्रकाशन करनाल के नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ ओमप्रकाश जी के सहयोग से हुआ था। मैं इस पुण्य कार्य में सहयोगी बना। इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद। आचार्य नरेंदर भूषण जी से मेरा परिचय आदरणीय श्री राजेंदर जिज्ञासु जी, अबोहर ने करवाया था। उन्हीं की प्रेरणा से मैं केरल वैदिक मिशन के कार्यों करने के लिए प्रेरित हुआ था।
मेरी दूसरी पुस्तक जिसमें मेरा व्यापक सहयोग रहा। वह थी डॉ भवानीलाल भारतीय जी द्वारा लिखित ईसाई मत और वैदिक धर्म। डॉ रामप्रकाश जी ने मुझे बताया था कि दिल्ली की ईसाईयों द्वारा संचालित पुस्तकालयों में आर्यसमाज का अनेक साहित्य उपलब्ध हैं। आप उसे अवश्य देखिये। मैं कश्मीरी गेट के नजदीक ईसाईयों के तीन पुस्तकालयों में गया। तब मैं सेंट स्टीफेन हॉस्पिटल, तीस हज़ारी, दिल्ली में कार्यरत था। इसलिए उन्होंने मुझे व्यापक सहयोग किया। वहां जाने से पहले डॉ भारतीय जी ने मुझे पंडित महेश प्रसाद मौलवी आलिम फ़ाजिल का एक 1966 में प्रकाशित हुआ लेख भेजा। इस लेख में स्वामी दयानन्द और ईसाई पादरियों के मध्य हुए शास्त्रार्थों की सूची थी। मैं वर्णन किये पादरियों के नामों के आधार पर उनकी लिखी पुस्तकें खोजता गया। जो सामग्री मिली उसे फोटोस्टेट करता गया। इंटरनेट पर भी शेष सामग्री मिली। इस संकलित सामग्री को 400 पन्नों के लगभग मैंने भारतीय जी को भेज दिया। उन्होंने आशा अनुसार मुझे कुछ ही दिनों में पुस्तक लिख कर भेज दी। डॉ चन्दोरा जी के आर्थिक सहयोग से यह पुस्तक घूड़मल ट्रस्ट से 2012 प्रकाशित हुई थी। यह मेरा पहला शोध पुस्तक सम्बंधित अनुभव था।
भारतीय जी ने एक बार उनके द्वारा लिखित स्वामी दयानन्द की जीवनी नवजागरण के पुरोधा को पुन: प्रकाशित करने की इच्छा शांतिधर्मी पत्रिका में जताई थी। जींद के श्री अशोक गौतम जी ने आर्थिक सहयोग देकर घूड़मल ट्रस्ट से इसे छपवाया था। मैं और शांतिधर्मी के संपादक सहदेव जी इस कार्य में कड़ियों को जोड़ने वाले पुरुषार्थी बने थे।
पंडित चमूपति लिखित यास्क युग पुस्तक लम्बे समय से अप्राप्य थी। इसकी एक प्रति मुझे दयानन्द मठ, रोहतक के पुस्तकालय में मिली थी। मैंने उसकी छायाप्रति घूड़मल ट्रस्ट को दी। यह पुन: प्रकाशित हुई। हमें इसका पुण्य लाभ भी मिला।
जब मैं MBBS कर रहा था। तब एक मुस्लिम छात्र से मेरी एक दिन मुग़ल साम्राज्य को लेकर बहस हुई। उसने कहा की मुग़ल महान थे। उन्होंने 300 वर्ष तक इस देश पर राज्य किया। यह बात मुझे चुभ गई। मैंने सार्वदेशिक सभा, दिल्ली के बिक्री विभाग से पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखित मुग़ल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण और बंदा बैरागी पुस्तक मंगवाकर उसे पढाई। वह निरुत्तर हो गया। मैंने सोचा कि पूरे भारत में न जाने कितने युवा इस पुस्तक के लाभ से वंचित हो रहे होंगे। इसका पुन: प्रकाशन होना चाहिए। इसी उद्देश्य से डॉ चन्दोरा जी के आर्थिक सहयोग से इस पुस्तक का पुन: प्रकाशन घूड़मल ट्रस्ट से करवाया।
स्वामी श्रद्धानन्द लिखित हिन्दू संगठन पुस्तक मुझे मिली। इसकी उपयोगिता इसे पढ़कर ही मालूम चलती है। इस पुस्तक का पुन: प्रकाशन 2015 में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से हुआ। इसे बड़ी संख्या में प्रचारित किया गया। संत राम BA लिखित स्वामी दयानन्द की जीवनी का प्रकाशन श्री संजय कुमार जी,कुरुक्षेत्र के संपादन में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित से हुआ। डॉ मुमुक्षु आर्य, हृदय रोग विशेषज्ञ लिखित सरल सत्यार्थ प्रकाश गागर में सागर का प्रकाशन भी मैंने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से करवाया। आर्यसमाज पंजाबी बाग के पुस्तकालय से पंडित चमूपति द्वारा अनुवादित उर्दू सत्यार्थ प्रकाशन का प्रकाशन तेजपाल सिंह धामा के सहयोग से दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा से करवाया।
अमरीका के श्री विद्यासागर गर्ग जी के सहयोग से अंग्रेजी में लिखित उत्तम ग्रन्थ Know thy Vedas के दो संस्करण दिल्ली सभा से प्रकाशित हो चुकें हैं।
मलयालम भाषा में सत्यार्थ प्रकाश के नवीन संस्करण की आवश्यकता हुई। श्री के एम राजन जी ने श्रमदान दिया। मेरे अनुरोध पर डॉ चन्दोरा जी ने धन दान दिया। एक बार फिर से मलयालम भाषा के सत्यार्थ प्रकाश का प्रकाशन हुआ। भविष्य में ऐसे अनेक शोधपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन की योजना है।
वर्तमान में कोलकता के श्री सुरेश चंद्र अग्गरवाल जी के सहयोग से स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद भाष्य के बंगला अनुवाद, स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा लिखित हिन्दू संगठन के बंगला भाषा पर कार्य चल रहा हैं। मलयालम भाषा में भी कुछ पुस्तकों पर कार्य श्री के एम राजन जी के सहयोग से चल रहा हैं।
4. वैदिक पुस्तकालयों की स्थापना-
केरल प्रान्त में वैदिक विचारधारा को प्रोत्साहन देने के लिए मैंने दो पुस्तकालयों की स्थापना में अपना योगदान दिया। कालीकट के डॉ एम. आर. राजेश को उस काल में कोई भी उत्तर भारत में नहीं जानता था। उन्होंने केरल में वैदिक पुस्तकालय की स्थापना करने की इच्छा जताई। मैंने डॉ चन्दोरा जी के आर्थिक सहयोग से कालीकट में सर्वप्रथम पुस्तकालय स्थापित करने में सहयोग दिया। उसके पश्चात पालघाट में श्री के एम राजन जी को भी वैदिक पुस्तकालय की स्थापना में सहयोग दिया। समय समय पर बंगलोर में, केरल में तथा गुरुकुल कालवा में पढ़ने वाले ब्रह्मचारियों को भी वैदिक सहित्य उपलब्ध कर्तव्य कर पुण्य लाभ लिया।
5. पुस्तक मेलों के द्वारा प्रचार-
मैंने यह अनुभव किया कि आर्यसमाज में युवाओं की संख्या निरंतर कम होती जा रही हैं। हमें आर्यसमाज का प्रचार आर्य समाज की सीमा के बाहर करना पड़ेगा। यह कार्य विशेष रूप से उर्वरा मस्तिष्क वाले युवाओं में होना चाहिए। क्यूंकि वे इस देश का भविष्य है। इसी उद्देश्य से मैंने पुस्तक मेलों में भाग लेने के लिए दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के मंत्री श्री विनय आर्य जी एवं प्रधान श्री धर्मपाल आर्य को प्रेरित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि पिछले 6 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला, प्रगति मैदान, दिल्ली से लेकर देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में पुस्तक मेलों में भाग लिया गया। आपको जानकर प्रसन्नता होगी की श्रीनगर से लेकर त्रिवेंद्रम तक, शिलांग से लेकर मुंबई तक देश के चारों कोनों में दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा ने पुस्तक मेलों में अपने प्रतिनिधि को भेजा। भारत का कोई भी ऐसा बड़ा प्रान्त नहीं है जहाँ पर आर्यसमाज के साहित्य का इस प्रकार से प्रचार नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त श्री राजेंदर जी बरेली का भी उत्तर प्रदेश, जयपुर, कोलकाता पुस्तक मेलों में वृहद् सहयोग मिला। मेरा यही अनुभव रहा कि सभी स्थानीय आर्यसमाजों को अपने अपने क्षेत्र में होने वाले पुस्तक मेलों में बढ़-चढ़कर प्रचार करना चाहिए। इस कार्य से बहुत बड़ी संख्या में युवाओं का वैदिक सिद्धांतों से परिचय संभव होता है। यही युवाओं को आर्यसमाज से परिचित करवाने का सशक्त माध्यम है। पिछले 4-5 वर्षों में मैंने पुस्तक मेलों के माध्यम से करीब 50 लाख के वैदिक साहित्य को वितरित किया है। यही मेरी उपलब्धि है। प्रतिवर्ष दिल्ली सभा के निर्देशन में प्रगति मैदान में लगने वाले पुस्तक मेले में आर्यसमाज का प्रचार अप्रतिम होता हैं।
6. कार्यशालाओं के माध्यम से प्रचार-
मेडिकल कॉलेज में पढ़ते हुए मैंने पाया की पावर पॉइंट से पढ़ने में जो प्रभाव होता है, उतना प्रभाव केवल लेक्चर में नहीं मिलता। इस अनुभव को मैंने आर्यसमाज के मंच से आजमाने का विचार किया। आर्यसमाज रोहिणी,दिल्ली से आरम्भ होकर JNU के संस्कृत विभाग तक , प्रगति मैदान, दिल्ली, जींद, इंदौर से लेकर अनेक आर्यसमाजों तक मुझे कार्यशाला करने का अनुभाव प्राप्त हुआ। इन कार्यशालाओं में विभिन्न विषयों पर विचार प्रकट किये जैसे स्वामी दयानन्द, आर्यसमाज के अन्य विद्वानों का योगदान, वैदिक सिद्धांतों से लेकर मनुस्मृति के विषय पर भ्रांतियों पर मैंने अनेक कार्यशालएं संपन्न हुई। इन कार्यशालाओं में पिछले 5 वर्षों से वक्ता के रूप में मैंने भाग लिया। जिस भी सज्जन ने ये कार्यशालाएं देखी है। उन्होंने उनकी भूरी भूरी प्रशंसा की है। मैं चाहता हूँ कि युवाओं को आकर्षित करने के लिए सभी आर्यसमाज कार्यशालाएं करनी आरम्भ करे। हमारे प्रचारक भी इसी नीति को अपनाये। इसका युवाओं पर प्रभाव बहुत व्यापक होता है। ऐसा मेरा अनुभव है।
7. इंटरनेट के माध्यम से सशक्त प्रचार-
मैंने सन 2000 में अपना ईमेल अकाउंट बनाया था। उस समय मेरा सबसे पहले आर्यसमाज के yahoogroups से जुड़ना हुआ था। इस ग्रुप के माध्यम से विदेश में रहने वाले आर्यसमाजियों से मेरा इंटरनेट के माध्यम से पहली पहली बार मिलना हुआ। दुनिया एक दम से छोटी हो गई। ऐसा लगने लगा। मैंने भी अंग्रेजी में वैदिक सिद्धांतों इस ग्रुप में डालना आरम्भ किया। इस ग्रुप में विशेष रूप से स्थापित आर्यसमाजी थे। आज भी यह ग्रुप चलता है। न्यूयोर्क में रहने वाले डॉ सतीश प्रकाश से इसी ग्रुप से परिचय हुआ। बाद में उनसे मिलना भी हुआ। 2006 में मेरा orkut से जुड़ना हुआ। orkut पर आर्यसमाज पेज को स्थापित किया। अनेक लेख लिखे। मुसलमानों, ईसाईयों, पौराणिकों से बहुत चर्चा की। यह विभिन्न विभिन्न विचारधाराओं के अनेक युवाओं से वार्तालाप का मेरा पहला अनुभव था। अनेक युवाओं को आर्यसमाज की ओर आकर्षित किया। यह कार्य 2010 तक चला। 2010 में फेसबुक पर सक्रिय हुआ। इस काल में मैं अग्निवीर से जुड़ा और उत्तम कार्य किया। इसी काल में ब्लॉग पर भी लेखन आरम्भ किया। ब्लॉग पर लिखे लेखों को फेसबुक पर प्रचारित करता था। निरंतर लेखन से मेरी पहचान इंटरनेट पर आर्यसमाज के प्रतिनिधि के रूप में बन गई। अनेक युवा मुझसे मार्गदर्शन लेते रहते। मैंने फेसबुक पर आर्यसमाज के इतिहास, स्वामी दयानन्द के जीवन, सिद्धांत, वेदों के विषय में जानकारी आदि पर हज़ारों लेख लिख कर प्रेषित किये। लेख लिखने के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता होती थी। इसके लिए निरंतर स्वाध्याय करने स्वाध्याय में व्यापक वृद्धि हुई। जिसका मुझे बहुत लाभ मिला। 2015 से मैंने इस कार्य को संगठनात्मक रूप में स्थापित करने का निर्णय किया। इसी उद्देश्य से फेसबुक पर बने आर्यसमाज पेज जिसकी उस समय संख्या 2500 के लगभग थी को प्रोत्साहित करना आरम्भ किया। इस पेज पर रोजाना नियमित रूप से 6 लेख प्रकाशित होते हैं। इस समय ग्रुप की संख्या 1.4 लाख से अधिक है। यह आर्यसमाज का इंटरनेट पर सबसे अधिक संख्या वाला और सबसे सक्रिय पेज है। एक लाख की संख्या में 17 से 37 आयु सीमा वालों की संख्या करीब 80% है। यह आर्यसमाज में युवाओं का सबसे बड़ा समूह है। जिसमें से 90% आर्यसमाजी नहीं है। अनेक छात्र नियमित स्वाध्याय से अपना ज्ञान अर्जन कर रहे है। इंटरनेट के माध्यम से आर्यसमाज को युवाओं तक पहुंचाने में यह एक क्रांति के समान है। आप भी इस लिंक पर जाकर हमारे पेज के सदस्य बन सकते है।
सन 2017 से व्हाट्सप्प द्वारा भी लेखों को प्रचारित करना आरम्भ किया हैं। व्हाट्सप्प के कारण मेरे लेख बड़ी संख्या में देश-विदेश में संचालित अनेकों समूहों में प्रचारित होते हैं। ऐसा मुझे आर्यजनों ने अवगत करवाया है। हमारा उद्देश्य अगले कुछ वर्षों में कई लाख से भी अधिक संख्या तक पहुंचाने का है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वर्तमान में इंटरनेट के माध्यम से 18 वर्षों से निरंतर आर्यसमाज का सक्रिय, सकारात्मक, प्रभावशाली प्रचार करने का अनुभव मेरी दृष्टि में अन्य किसी का नहीं है। मुझे जीवन में अनेक महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। स्वर्गीय पंडित आशानंद भजनोपदेशक, आचार्य हरिदेव जी करोल बाग वाले, स्वर्गीय उमाकांत उपाध्याय जी, स्वर्गीय डॉ जयदेव आर्य, स्वर्गीय स्वामी ओमानंद जी झज्जर वाले, शांतिधर्मी पत्रिका के संस्थापक स्वर्गीय पंडित चन्द्रभानु जी आर्य उपदेशक, स्वर्गीय आचार्य नरेंदर भूषण जी, स्वर्गीय डॉ धर्मवीर जी, स्वर्गीय आचार्य ज्ञानेश्वर आर्यजी, स्वर्गीय डॉ भवानीलाल भारतीय जी,का निर्देशन मिला।
भूतपूर्व संसद सदस्य डॉ रामप्रकाश जी, श्रद्धेय श्री राजेंदर जिज्ञासु जी, आर्य प्रकाशक श्री प्रभाकर देव आर्य जी, आचार्य सत्यव्रत जी आदि है। इन महान आत्माओं के दिशा निर्देशन एवं मार्गदर्शन से जीवन में बहुत कुछ सीखनें को मिला।
यह मेरा छोटा सा लेख मेरे पिछले 18 वर्षों का आर्यसमाज में एक सेवक के रूप में कार्य करने का परिचय है। भविष्य में ईश्वर बहुत सामर्थ्य दे जिससे ऋषि के ऋण से उऋण होने का अधिकाधिक अवसर प्राप्त हो। मैं किसी गुरुकुल का स्नातक नहीं हूँ। न ही हिंदी या संस्कृत का विद्वान हूँ। केवल अपने पूर्वजन्म के संस्कारों, माता-पिता की प्रेरणा, गुरुजनों का आशीर्वाद, मित्रों के सहयोग, पुरुषार्थ आदि के बल पर वैदिक धर्म का प्रचार कर रहा हूँ। इस लेख का उद्देश्य अपनी प्रशंसा करना या करवाना नहीं है। उसके लिए तो मेरा शिशु रोग विशेषज्ञ होना ही बहुत है। अपितु यह सन्देश देना है कि अगर आप ईमानदारी से स्वामी दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ाना चाहते है, तो आपको किसी की निंदा, आलोचना करने, किसी में कमी निकालने, समुचित अवसर न मिलने की शिकायत करने , संसाधन न होने, समय न होने, अनुकूल मंच या परिस्थिति न होने जैसे बहाने बनाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।
आप पुरुषार्थ करते जाइये। आपको सफलता अवश्य मिलेगी। यही मेरा इस लेख को पढ़ने वाले युवाओं को सन्देश है।
क्यूंकि वेद कहते है-
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः। -अथर्ववेद ७.५२.२८
मेरे दाएं हाथ में विचार पूर्वक कर्म करना है। मेरे बाएँ हाथ में सफलता है।