“पद”
“पद” वियोग श्रृंगार रस
ऊधौ मानों बात हमारी
हम कान्हा की राह निहारे, तुमने बात बिगारी।
आय गयौ लै अपनी लकुटी, पढ़ते निर्गुन चारी।।
जा कहना बंसी वाले से, यमुना भै बीमारी।
हे साँवरिया कृष्ण मुरारी, पनघट पड़ी उघारी।।
ज्ञान सिखाकर अयन चुराते, कैसे रूप बिसारी।
भेजे उधौ को समझाने, खुद समझौ बनवारी।।
कैसी किसकी रात गई है, कैसे गृह महतारी
ग्वाल-बाल दुख सागर डूबे, राधा भई बिचारी।।
धर्म रूपिनी गोकुल गैया, भटक रही गिरधारी।
एक बार अब मधुवन आओ, मोहन नंदबिहारी।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी