कविता
लम्हे थे कुछ पुराने,
आज अचानक
आ सामने खड़े हुए
कुछ हवा में बिखरे हुए
कुछ समय के साथ निकल लिए
सदियों से चुप थे
आज बोल फूट पड़े
वक्त की परत में दबे हुए
आज मुक्त होकर
ये मुखर हो उठे
लम्हे कुछ पुराने थे…..
अतीत की चादर ओढे हुए
अब लगे हैं कुछ उतरने
यु नकाबो के चेहरे
वो पल यही हैं
वो किस्से भी यही पड़े हैं
पुरवाई में बिखरे हुए
जहाँ मैं खड़ी थी
पर जी न सकी थी उस पल को
शिकवा और शिकायत
दोनों ही कर गये मुझसे
गुजरते वो पल
लम्हे कुछ पुराने थे…..
कुछ अनजान अपरिचित
पर थे अपनों से भले
अपनों से ही छले
पहचाने से वो चेहरे
नजरो के सामने
आज आ ही गये
सामने थे मेरे हंसी सपने
जो ठहरे थे लम्हों की सांसो पर
कुछ ख्वाब को
वर्तमान में रखने की कह
गुजर गये वो लम्हे
लम्हे थे कुछ पुराने
आज अचानक
आ सामने खड़े हुए
— शोभा रानी गोयल, जयपुर