दिसंबर चलने को है
पैरों की थकन क्या कहूँ
उम्र हुई चलते चलते
हर बार दिसंबर आता है
यादें सुहानी छोड़ जाता है
दिसम्बर की इतनी कहानी है
जैसे याद आई गुजरी जवानी है
कभी टीस सी रह जाती है
तब तक जनवरी आ जाती है
कुछ सोचू तो फुर्र हवा सी
फरवरी भी उड़ जाती है
होली के रंग बसंत की बहार
दिल झूमें बार- बार ओ दिलदार
अमलतास के पीले पीले गुच्छे
दावानल सा दहकता पलाश
अप्रैल में बैसाखी के मेले की रौनक
अनाज स्वर्ण कणों सा बिखर जाता है
सहेजते समेटते दिन जाने कब
मई की दुपहरी में गर्म हवा दे जाता है
जून की तपिश से जलता तन
फुहारों का इंतजार लंबा हो जाता है
सावन कब चुपके-चुपके काली घटा
बन के धरा पर बरस जाता है
बादल विरहन के मन में अगन के शोलों को
भड़का कर कौंध कौंध डरा जाता है
अगस्त के आते-आते
राखी के धागे से जाते है
शिक्षकों को समर्पित सितंबर हमारा
जाते ही रावण जलाने की तैयारी
अक्टूबर आते ही आई दीपोत्सव की बारी
नवंबर बालदिवस में चला जाता है
हाय ये दिसंबर फिर आ जाता है
यादों की पोटली सिर पर उठाए
पैरों की थकन क्या कहूँ
उम्र हुई चलते चलते
— अर्विना गहलोत