ज़माने से हुई ख़बर कि मैं सुधर गया
ज़माने से हुई ख़बर कि मैं सुधर गया
फिर वो कौन था जो मेरे अंदर मर गया
दूसरों की निगाहों से जो देखा खुद को आज
देख कर अपना ही चेहरा क्यों डर गया
वो अल्हड़पन, वो लड़कपन कल तक जो था
आज ढूँढा बहुत,ना जाने किधर गया
मैं खोजता रहा खुद को स्टेशन की तरह
संसार रेल की तरह मुझसे गुज़र गया
मैं खोजता रहा जहाँ की तयशुदा मंज़िलें
मीलों चलके भी खाली मेरा सफर गया
कौन पहचानेगा मुझे बदले हालातों में
अपने भी ठुकरा देंगे,मैं घर अगर गया
जो दोस्त बनके नसीहतें देता रहा ताउम्र
ज्योंहि जरूरत पड़ी तो वो मुकर गया
मुझे बदलना था उसे, सो मुझे बदल गया
आदमी को मशीन बनाने का काम कर गया
— सलिल सरोज