ग़ज़ल
प्यास दिल की वो बुझाने आए
दो घड़ी पास बिठाने आए
खुश थी मैं अपनी ही तन्हाई में
अश्क क्यूं साथ निभाने आए
जो सियासत करते लाशों की
अश्क झूठे वो बहाने आए
बंद आंखें जो की दो पल मैंने
ख़्वाब क्यूं नींद उड़ाने आए
मैं नदी फिर भी मैं प्यासी ही रही
दिल ये सागर से मिलाने लाए
ना मसीहा न फरिश्ता हूं मैं
क्यूं मुझे सूली चढ़ाने आए ।