कविता – जीवन-श्रृंगार
यहाँ है स्वर्ग यहीं आनन्द।
यहीं है जीवन का मकरन्द।।
दिया तुमने ही जब यह ज्ञान।
हृदय में बसकर हे भगवान!
विकल हो कहे नयन का नीर।
मिटा दो मेरे मन की पीर।।
फँसी है क्यों नौका मँझधार?
पकड़ ली जब तुमने पतवार।।
सुनो हे! सीता के श्री राम।
तुम्ही हो राधा के प्रिय श्याम।।
हुआ है पूरा अब वनवास।
मिलोगे आकर है विश्वास।।
पुकारे शबरी लेकर बेर।
अहर्निश मीरा की सुन टेर।।
दौड़ते आओगे हिय – हार।
पुनः अब लोगे तुम अवतार।।
तभी चहका है सूना प्रांत।
तभी महका है तन-मन क्लांत।।
जले हैं दीपक दिव्य अनंत।
तिमिर तुम हरने आये कंत!
गगन से बरसा नेह अपार।
धरा ने पाया अनुपम प्यार।।
खिली है वसुधा की हर पोर।
क्षितिज पर लाली है चहुँओर।।
विहँसते जग के सुरभित प्राण।
मदन से छूट गए हैं बाण।।
सृष्टि के महामिलन का रूप।
सदा अति अद्भुत और अनूप।।
तुम्ही हो अंत और आरम्भ।
जगत के तुम ही हो स्तंभ।।
तुम्हारी सत्ता कर स्वीकार।
तुम्हे सब सौंप दिये अधिकार।।
तुम्ही से आभा है उल्लास।
महकता मन-मंदिर है पास।।
तुम्हारी वाणी में झंकार।
तुम्ही से सृजन और संहार।।
बने हो जबसे मेरे मीत।
हृदय में गूँज रहा संगीत।।
तुम्ही हो जीवन का श्रृंगार।
तुम्ही से पावन घर – संसार।।
सघन वट हो तुम पुष्प पलाश।
प्रणय का विस्तृत हो आकाश।
‘अधर’ पर तुमसे है मुस्कान।
तुम्ही से जीवन में है जान।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’