मेरा शहर – मेरा बचपन
आज बरसों बाद लौटी हूँ अपने शहर में
मुझे याद आता है मेरा बचपन इस शहर में
वो ओस की बूंदों का गिरना खड़े पेड़ो से
वो हमारा हाथों का मलना ठण्ड से बचने के लिए
और वो सुबह न चाहते हुए भी ठण्ड में स्कूल जाना
और फिर मुस्कुराते हुए घर वापस आना
वो गर्मियों में झरनो पर नहाना
और साथ में पानी हाथ में लाना
लीचियों के पेड़ पर चढ़कर लीची खाना
आम के पेड़ पर चढ़कर भैया को चिढ़ाना
और याद आता है रात का वो नज़ारा
पहाड़ो पर बिखरे रौशनी के वो नज़ारे
जैसे उतर आएं हो तारे ज़मीं पर सारे
और दूर किसी पहाड़ी पर कोई एक रौशनी
मानो किसी भटके हुए रही का सहारा हो
वह लहराते धानो में महकी महकी खुशबू का आना
वो फूलों का खिलना और मस्त हवाओं का बहना
वो सुन्दर वादियां और मासूम चेहरे
वो पल में बारिश का आना फिर धूप का खिलना
आज फिर से ढूंढ़ती हूँ उस बचपन को
न वो बचपन है न वो खेत खलियान
मैं बड़ी हो गयी हूँ मुझे पता है पर लगता है
यह शहर भी बड़ा हो गया है क्योंकि
ना ये मुझे पहचानता है ना मैं इसे पहचानती हूँ
— सरिता शर्मा