गज़ल
पास आती न हसरत बिखरते रहे
चाहतों के लिए शोर करते रहे
कारवाँ अपनी मंजिल गया की रुका
कुछ सरकते रहे कुछ फिसलते रहे।।
चंद लम्हों की खातिर मिले थे कभी
कुछ भटकते रहे कुछ तरसते रहे।।
सारथी ख्वाब लेकर फ़ना हो गया
पल मचलते रहे अश्व चलते रहे।।
पीर देती सनम चाबुकों की छुवन
रक्त पानी सरिष रिस निकलते रहे।।
क्या पता किस लिए लोग आते यहाँ
कुछ जमी पर पड़े ही बिलखते रहे।।
पूछ गौतम रहा क्यों सियासत हुई
आदमी को जबह कर थिरकते रहे।।
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी