सिंहावलोकनी दोहा
लगता मित्र नाराज है, कहो न मेरा दोष।
दोष दाग अच्छे नही, मन में भरते रोष।।-1
रोष विनाशक चीज है, भरे कलेश विशेष।
विशेष मित्र से प्यार कर, करहु न गैर भरोष।।-2
भरोष हनन करना नहीं, नाहक बढ़ती पीर।
पीर तीर से घातकी, दवा नहीं तपकीर।।-3
तपकीर तमस चासनी, करती बहुत अधीर।
अधीर कहाँ खुशाल है, नैन तरसते नीर।।–4
नीर निकलता आँख से, देह दुलार सुमार।
सुमार सहित परिधान पन, भूषन व्यसन विकार।।-5
विकार दुख देता सदा, मानो मन की बात
बात न कड़वी बोलिये, तड़फाये दिन-रात।।-6
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी