गज़ल
झूठ के सामने सच छुपाते रहे
छोड़कर जा रहे क्यों पढ़ाते रहे
जान लेते हक़ीकत अगर वक्त की
सच कहूँ लौट आते सताते रहे।।
ये सहज तो न था खेलना आग से
प्यास को आब जी भर पिलाते रहे।।
भर गई बाढ़ में जब छलककर नदी
भर गई मन मुरादें दिन दिखाते रहे।।
डूबकर घास फिर से हरी हो रही
तुम खड़े पेड़ माफ़िक सुखाते रहे।।
गौर गौतम करे भाँपकर धार को
मीन जैसे डुबे तुम डुबाते रहे।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी