सब्र आ जाए इस उम्मीद में ठहर गया कोई
सब्र आ जाए इस उम्मीद में ठहर गया कोई
पास होकर भी कैसे बेख़बर गुज़र गया कोई
नज़र कहाँ वो मुझको जो तलाश करती रही
सख़्त राहों पे शायद ख़्वाब बिखर गया कोई
तिलिस्मी हो गए इशारे उनकी नज़र के अब
देखिए आके तमन्नाएँ बर्बाद कर गया कोई
क्या क्या निकला कड़वाहट से भरी बातों में
आज सुनके इल्ज़ाम दिल से उतर गया कोई
शौक़ से बिठाई महफ़िल अन-मनी सी रही
मिरा ज़िक्र ‘राहत’ ख़ैर चैन से घर गया कोई
डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’
०५/०८/२०१८