समाज और हमारी व्यवस्था
प्लेटो ने कहा था, कि हम अंधेरे से डरने वाले बच्चे को आसानी से माफ कर सकते हैं; जीवन की असली त्रासदी तब है, जब लोग प्रकाश से डरते हैं। आज कुछ स्थिति ऐसी ही दिख रहीं। जब हम बात लोकतांत्रिक व्यवस्था के सांचे में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य और भारतीय अवाम की करते हैं। तो वर्तमान स्थिति हमारे समाज की क्या है। इससे अनभिज्ञ कोई नहीं। समाज इक्कीसवीं सदी में जातियों के जकड़न में उलझता दिख रहा और उसे हवा भी कौन दे रहा। वहीं राजनीतिक सियासतदां जो अपने को राजनीतिक राजधर्म का वाहक कहते हुए नहीं थकते।
ऐसे में जब बात भारतीय राजनीतिक परिदृश्य और भारतीय अवाम की कर रहें तो पहला प्रश्न आज की राजनीतिक व्यवस्था से ही, क्या राजनीति का धर्म सिर्फ़ जाति और धर्म का ज़िक्र करते हुए ही सत्ता का खेवनहार बनें रहना होता है। क्या स्थिति है आज देश की। लोकतांत्रिक व्यवस्था जनता के लिए, जनता के द्वारा अगर जनता का शासन है। फ़िर आख़िर क्या कारण है। सुदूर अंचल में बैठे व्यक्ति की आवाज़ दिल्ली के तख़्त तक नहीं पहुँचती और पहुँचती भी है तो क्यों उसे अनसुना कर दिया जाता है। आज सरकारें अगर सिर्फ़ प्रचार के मोड में हर क्षण दिखती हैं, तो क्या यहीं राजनीतिक राजधर्म कहलाता है। शायद इस यक्ष प्रश्न का जवाब न सत्ता पक्ष के पास होता है, और न ही विपक्ष के पास। ऐसे में लोकतांत्रिक भावना को ही ठेस पहुँचता है। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए कहें विपक्ष की भूमिका भी लोकतांत्रिक सांचे में संदेह के घेरे में है। तो कतिपय यह अतिश्योक्ति नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि देश किस तरफ़ जा रहा शायद विपक्ष के किसी सियासतदां को इसकी फ़िक्र नहीं दिख रही। बल्कि उसे तो प्यास दिख रही सत्ता के रसास्वादन की। फ़िर वह bविपक्ष का कोई भी दल हो। उसके मुखिया में सिर्फ़ प्रधानमंत्री बनने की भूख दिख रहीं है। समाज जिस हिसाब से जातीयता के जकड़न, बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा। उससे निजात दिलाने का कोई विजन उसके पास नहीं दिख रहा। ऐसे में वर्तमान सियासतदानों के मंदिर-मस्जिद की दौड़ देश को किस तरफ़ ले जा रहा। किसका सहज आंकलन किया जा सकता है।
यहां प्लेटों के एक और कथन का ज़िक्र करें, तो एक आदमी का आकलन, उसके सत्ता में रहते हुए किये कामों से होता है। ऐसे में अगर वर्तमान दौर में सरकारें सिर्फ़ अपनी खुशामद ही पसन्द करती हो तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है, सब कुछ सही रास्ते पर नहीं। किसी भी सरकार में सबकुछ शत-फ़ीसद बेहतर ही हो। यह उम्मीद करना कतई उचित नहीं, इसलिए सरकारों को कमियों पर आंख-भौं न सिकोड़ते हुए उससे और बेहतर करने का संकल्प लेना चाहिए लेकिन ऐसा भी कुछ वर्तमान में नज़र नहीं आता।
प्लेटो कहते हैं, कि अगर कोई व्यक्ति शिक्षा की उपेक्षा करता है, तो वह अपने जीवन के अंत तक पंगु की तरह जायेगा। ऐसे में अगर हमारी व्यवस्था ही बेहतर शिक्षा प्रणाली के लिए सजग नज़र नहीं आती तो शिक्षा का स्तर आज बेशक बढ़कर 74 फ़ीसद तक पहुँच गया है। ऐसे में जब बात वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य और भारतीय अवाम की कर रहें। तो यहां दोनों की स्थिति संशय में नजर आती है। न अवाम अपने फ़र्ज़ और अधिकार को समझ पा रही है। न ही राजनीतिक दल राजनीतिक राजधर्म का पालन कर रहें हैं। जिस देश में सर्वोपरि संवैधानिक संस्था, संविधान और लोकतंत्र है। वहां पर अगर जाति और धर्म को लेकर राजनीतिक दलों का गठन पुष्पित और पल्लवित होने लग लगा है। तो एक बात स्पष्ट है, आने वाले समय में स्थिति बेहतर नहीं रहने वाली है। जब हम बात सर्वसमाज और समावेशी विकास की करते हैं। तो जातीय राजनीतिक की बढ़ती उपज उस आयामों को चूना लगाने का काम ही करती है। जिस बेहतर और आदर्शराज की परिकल्पना महापुरुष करते हैं।
ऐसे में अवाम को अपने लोकतांत्रिक अधिकार को समझना होगा, क्योंकि लोहिया जी ने कहा था जिंदा कौमें पांच वर्ष इंतजार नहीं करती। तो अब सुषुप्त जनता को अपनी उन्नति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए राजनीति की कूटनीतिक चाल को समझना होगा। तभी बेहतर सामाजिक परिवेश निर्मित होगा। बेहतर समाज का निर्माण करना है, तो अवाम को अपने मताधिकार का महत्व समझना होगा। संवैधानिक अधिकारों के लिए आंदोलित होने के साथ संवैधानिक कर्तव्यों का अनुपालन भी सुनिश्चित करना होगा। साथ ही साथ पूर्वधारणा से ऊपर उठकर उसे बेहतर राजनीतिक व्यवस्था के चुनाव का हिस्सा बनना चाहिए।