लघुकथा – द्वन्द
प्रगति मैदान में पहुँचते ही शीला अचकचा गयी भीड़ को देख।
आगे बढ़ी तो कई दुकाने लगी हुई थीं। किस में उसे जाना समझ ही नहीं आ रहा था। कुछ जाने पहचाने बड़े-बड़े साहित्यकार उसे दिखे। पोस्ट पर यदा-कदा कमेंट करना इस समय सरल सा लग रहा था पर आगे बढ़कर उनसे मिलना, हिम्मत ही न हुई उसकी। उस रास्ते से विपरीत राह पर चल पड़ी वह।
कुछ हमउम्र अपनी फ्रेंड लिस्ट में रहने वाली पर नजर गयी, वह बढ़ी !लेकिन फिर ठिठक गयी। सोचने लगी न पहचानी तो, कहीं भाव ही नहीं दी तो?
अंदर ही अंदर उसका आत्मसम्मान और आगे बढ़कर आभासी परिचितों को गले लगाने की चाहत आपस मे गुत्थमगुत्थी कर रहे थे।
सोचते हुए कदम बढ़ाती हुई वह ठिठकी फिर अचानक मुस्कराकर सुधा को गले से लगा लिया। हंसकर बोली, “तुमसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई। इतने साल से हम फेसबुक पर एक दूसरे की पोस्ट पर आते-जाते हैं, लग ही नहीं रहा है कि यह पहली मुलाकात है हमारी।”
वह भी अंक में भरते हुए चीखी -“तुम तो फेसबुक से बिलकुल विपरीत दिखती हो। स्वभाव से तो खड़ूस टाइप लगती थी।” सुधा के इन शब्दों को शीला के कानों ने सुना तो जैसे उसके दिल ने स्नेह गंगा में डुबकी लगा दी हो।
“पर हूँ नहीं न।” बोलकर खिलखिला पड़ी वह।
आत्मविश्वास जगते ही वह सामने दिख रहे हीरो वाले खदान के की ऒर जाने वाले रास्ते पर चल दी।
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’