लघुकथा

लघुकथा – कहीं दूर जब दिन ढल जाये

जया सूर्यास्त के समय छत की मुडेर पर खड़ी प्राकृतिक वातावरण में दिन भर
की स्कूल की थकान उतारने का प्रयास करती हुई चिन्तन विचार मन्थन कर रही
थी। मम्मी को अनन्त यात्रा पर गए दस साल हो गए। अब वह स्वयं एवं पापा।
पापा उसके विवाह के लिए प्रयास कर रहे हैं। पर सबको उसके तन एवं पापा के
धन का ही लालच है। उसका मन है कि वह पापा को साथ रखकर ही सेवा करेगी ,
पर यह कोई स्वीकार नहीं करता। पर वह भी सन्कल्प ले चुका है कि जो उसके मन
की बात को स्वीकार करेगा वह उसे ही अपना मन मित्र जीवन साथी बनाएगी। अरे
दिन ढल गया। पापा भी कार्यालय से आने वाले ही है। चाय नाश्ता रात्रि भोजन
की तैयारी करनी है। पापा तो चुप रहते हैं। जो मिलता है वही स्वीकार कर
लेते हैं। वैसे आत्मनिर्भर है लेकिन मन की इच्छा एवं दर्द कभी नहीं
बताते। चलती हु नीचे रसोई में। कल फिर आती हूँ।

— दिलीप भाटिया

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी