यूँ मत देख…
यूँ मत देख कि झुलसती हूँ बहुत
तनिक तो कभी ओटकर के देख।
तपिश हर वक्त ही सही नही होती
कभी तो ओस की तरह झरके देख ।।
माना कि बहुत तंग हुई हैे गलियां,
जिधर रहते रहे हम बरसों से ।
कभी चढ़कर खुली छत पे मन की
फुर्सत की हवाओं में बह के देख ।।
फक्त ज़ालिम ही नही कुदरत के ढंग
देर से सही दुरस्त
किसी अमाँ के घिर जाने से पहले
पूनम के सागर सा उफ़नकर देख।।
अजब है इश्क की फसलों का स्वाद
ढलते मौसम ज़ुबाँ पे चटक ये होती ।
ख्वाहिशों के फेर मात खायी ज़िन्दगी
ज़िन्द के फेर इसे कम करके देख ।।
प्रियंवदा अवस्थी